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________________ -५. ५५ ] भावप्राभृतम् ३८१ 1 ( णग्गत्तणं अकज्जं ) नग्नत्वं सवं बाह्यपरिग्रहरहितत्वं अकार्यं सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षकार्यरहितं । कथंभूतं नग्नत्वं ( भावणरहियं जिणेहि पण्णत्तं ) भावनारहितं पंचपरमेष्ठिबाह्यभावनारहितं निजशुद्धबुद्ध कस्वभावात्मान्तरङ्गभावनारहितं च जिनैस्तीर्थंकरपरमदेवैरनगारकेवलिभिर्गणधर देवैश्च प्रज्ञप्तं प्रणीतं प्रतिपादितं कथितं भणितमिति यावत् । ( इय णाऊण य णिच्चं ) इति ज्ञात्वा विज्ञाय नित्यं सर्वकालं । ( भाविज्जहि अप्पयं धीर) भावयेस्त्वं आत्मानं बहिस्तत्वं च हे वीर ! योगीश्वर ! इति सम्बोधनपदेन ध्येयं प्रति घिय मीरन्ति प्रेरयन्ति इति धीरा योगीश्वरा एव ग्राह्मा न तु गृहस्थवेषधारिणः पापिष्ठलौका. गृहस्थानां सम्यक्त्व पूर्व कमणुव्रतेषु दानपूजादिलक्षणेषु गुरूणां वैयावृत्यफलेषु नियोगो ज्ञातव्य इति । तथा चोक्तं लक्ष्मीचन्द्रेण गुरुणा 3 विज्जावच्चें विरहियहं वय गियरो वि ण ठाइ । सुक्क सरहु किह हंस कुलु जंतउ घरणहं जाइ ॥ विशेषार्थ – पंचमपरमेष्ठियोंकी बाह्य भावना से रहित तथा शुद्धबुद्ध-वीतराग सर्वज्ञता रूप एक स्वभावसे युक्त निज आत्माकी अन्तरङ्ग भावनासे रहित जो नग्नता है अर्थात् सर्वं बाह्य परिग्रह से रहित अवस्था है वह सब कर्म क्षय रूप मोक्ष कार्य से रहित है । ऐसा तीर्थंकर परम देवने, अनगार केवलियों ने अथवा गणधर देवों ने कहा है । ऐसा जानकर है धीर! हे योगीश्वर ! तू आत्मा तथा बाह्य तत्त्वकी भावना कर । यहाँ आचार्य महाराज ने जो 'धीर' यह सम्बोधन पद दिया है उससे ध्येय के प्रति बुद्धिको प्रेरित करने वाले मुनियोंका ही ग्रहण करना चाहिये । गृहस्थ 'वेषको धारण करने वाले पापो लौंकों का नहीं । दान पूजा आदि जिनके लक्षण हैं तथा गुरुओं की वैयावृत्त्य जिनका फल है ऐसे सम्यक्त्वपूर्व अणुव्रत धारण करना गृहस्थों का कार्यं जानना चाहिये । जैसा कि लक्ष्मीचन्द्र गुरुने कहा है वैयावृत्य से - वैयावच्च – जो पुरुष नहीं ठहरता, सो ठीक ही है क्योंकि सूखे कुल किस प्रकार रोका जा सकता है ? १. लोकाः क० । २. वैयावृत्यसकालेषु म० । ३. सावय धम्म दोहा । Jain Education International रहित हैं उनके व्रतोंका समूह सरोवरसे जाता हुआ हंसों का For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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