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________________ ३४० षट्नामृते [५.४६नास्तीति प्राक्तनमेव स्थानं गोकुलं निनाय । अन्वेषकैस्तु नन्दगोपसुतेनैतत्कर्म कृतमिति राजे निवेद्यते स्म । तथापि तदनिश्चये सहस्रदलं कमलमहीशरक्षितं प्रेष्यतामिति राज्ञा नन्दगोप आज्ञापितः शोजिज्ञासया तत्व त्वा नन्दगोपः शोकादाकुलो बभूव "राजानः किल प्रजानां पालका भवन्ति रुष्टमेतत् तेऽद्य मारकाः संजाता इति ।" निर्विद्य पुत्र ! त्वं याहि राजविष्टिरीदृशी वर्तते इति । त्वयंवोअसपरक्षितानि कमलानि राज्ञः प्रदातव्यानीति जगाद । कृष्णः प्राह-कोऽपि पदार्थः किं दुष्करो मम वर्तते इत्यपूर्वतेजा नागसरो जगाम । त्वरितं तत्र निःशंक प्रविवेशे च । तं ज्ञात्वा कोपेन वेपमानो लेलिहानः स्वःनिश्वाससमुद्भू ज्वलज्ज्वालाकणान् किरन् फणारत्नप्रभाभासिफणाप्रकटाटोपभयानकः प्रचलद्ररसनायुगलो देकर कृष्णका सन्मान किया । नन्दगोप ने विचार किया कि मुझे इस पुत्र के प्रभाव से किसी से भय नहीं है यह सोच कर वह अपने गोमण्डल को पूर्वस्थान पर ही ले आया। यद्यपि खोज करने वालों ने राजा से कहा था कि यह कार्य नन्दगोप के पुत्र ने किया है तथापि उसका पूर्ण निश्चय नहीं हो सका अतः राजा ने शत्रु को जानने की इच्छा से नन्दगोप को आज्ञा भेजी कि तुम नागेन्द्र के द्वारा रक्षित सहस्र दल कमल भेजो। यह आज्ञा सुनकर नन्दगोप शोकसे आकूल हो गया। वह कहने लगा कि राजा तो प्रजा के रक्षक होते हैं परन्तु खेद है कि वे आज मारने वाले हो गये। बड़ी उदासीनता के साथ नन्द ने कृष्ण से कहा-पुत्र ! तुम जाओ राजा की आज्ञा ऐसी है भयंकर सो से रक्षित कमल तुम्हारे द्वारा ही राजा के लिये दिये जाना चाहिये । कृष्ण ने कहा-मेरे लिये क्या कोई भी पदार्थ दुष्कर है ? इस प्रकार कह कर अपूर्व तेज से युक्त कृष्ण नाग सरोवर की ओर चल पड़ा और शीघ्र हो निःशङ्क होकर उसमें जा घुसा। यह जानकर जो क्रोष से काँप रहा था अपनो श्वास के साथ निकली हुई देदीप्यमान ज्वालाओं के कणों को सब ओर बिखेर रहा था, फणा पर स्थित रत्न की कान्ति से सुशोभित फणा के प्रकट विस्तार से जो अत्यन्त भयानक था, जिसकी दो जिह्वाएं लपलपा रही थीं, खुले हुए नेत्रों से जो अत्यन्त भयंकर दिख रहा था, तथा यमराज के समान जिसका आकार था ऐसा नागेन्द्र कृष्ण को निगलने के लिये उद्यत हुआ। परन्तु कृष्ण यह मेरा वस्त्र है इसके पछाड़ने के लिये यह खासो अच्छी शिला है, ऐसा कह अपना गीला पीताम्बर खोलकर फणा पर १. आज्ञा ( क. टि ) वेगार इति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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