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-५. ११८] भावप्राभूतम्
५०५ दोषः । जं दिटुं-यत्पापं केनचिदृष्टं तकथयति, अन्यजानन्नपि न कथयतीति यदृष्टदोषः । वायरं च-स्थूलं पापं प्रकाशयति सूक्ष्म न कथयतीति बादरदोषः । सुहमंच-सूक्ष्मं अल्पं पापं प्रकाशयति स्थूलं पापं न प्रकाशयतीति सूक्ष्मदोषः । छन्नं यदा कोऽपि न भवत्याचार्यसमीपे तदकान्ते पापं प्रकाशयतीति छन्नदोषः । सद्दाउलयं यदा वसतिकादौ कोलाहलो भवति तदा पापं प्रकाशयतीति शब्दाकुलदोषः । बहुजणं-यदा वहवः श्रावकादयो मिलिता भवन्ति तदा पापं प्रकाशयतीति बहुजनदोषः । अव्वत्त-अव्यक्त प्रकाशयति दोषं स्फुटं न कथयतीत्यव्यक्तदोषः । तस्सेवी-तत्पापं गुर्वग्रे प्रकाशितं तत्सर्वथा न मुंचति पुनरपि तदेव कुरुते स तत्सेवी कथ्यते । अथवा य आचार्यस्तं दोषं करोति तदने पापं प्रकाशयति निर्दोषाचार्याने पापं न प्रकाशयतीति तसेवी दोषः दश धर्मास्तु प्रसिद्धा वर्तन्ते तेन न व्याख्याताः।
२ अनुमानित-जिसमें मुनि, अनुमान से दोष कहता है यथार्थ नहीं कहता, वह अनुमान योग है।
३ जो पाप किसी ने देख लिया है उसे ही कहता है अन्यदोषको जानता हुआ भी नहीं कहता है, यह दृष्ट दोष है।
४ स्थूल पापको कहता है सूक्ष्म पापको नहीं कहता है, यह बादर .दोष है। ___५ सूक्ष्म पापको ही कहता है स्थूल को नहीं, यह सूक्ष्म दोष है । - ६ जब आचार्य के पास कोई नहीं होता है तब एकान्त में पापको प्रकट करता है, यह छन्न दोष है।
७ जिस समय वसतिका आदि में महान् कोलाहल हो रहा हो उस समय दोष कहना शब्दाकुलित दोष है ।
८ जिस समय बहुत से श्रावक आदि इकट्ठे हुए हों उस समय दोष कहना बहुजन दोष है। . ९ अव्यक्त रूप से दोष कहता है स्पष्ट नहीं कहता यह अव्यक्त दोष है। ___ १० जो पाप गुरुके आगे प्रकाशित किया है उसे सर्व प्रकारसे छोड़ता नहीं बार बार उसे ही करता है यह तत्सेवी दोष है, अथवा जो आचार्य उस दोषका स्वयं सेवन करता हो वह तत्सेवी है । दश धर्म प्रसिद्ध हैं अतः उनका कथन नहीं किया है ॥११८॥.......
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