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________________ -५.७२] भावप्राभृतम् ४०३ भावनारहितास्ते च ते द्रव्य-निग्रन्था नग्नरूपधारिणो जिनभावनारहितद्रव्यनिर्ग्रन्थाः । अथवा जिनस्य भावना तीर्थकरनामकर्मोपार्जनप्रत्ययभूता दर्शनविशुद्धपादयो भावनाः षोडश ताम्यो रहिताः । जिनसम्यक्त्वसहिता व्यस्ताः समस्ता वा भावनास्तीर्थकरनामकर्मदायिका भवन्ति । दर्शनविशुद्धिरहिता अपराः पंचदशापि भावनास्तीर्थकरनामकर्म नार्पयन्ति । तथा चोक्तं एकापि समर्थेयं जिनभक्तिदुर्गति निवारयितु । पुण्यानि च पूरयितु दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥१॥ अथवा द्रव्यनिग्रन्थाः बहुविधधर्ममिषेण द्रव्यमुपार्जयन्ति ये ते द्रव्यनिग्रन्थाः कथ्यन्ते । न ( लहंति ते समाहिं ) ते मुनयः समाधि रत्नत्रयपरिपूर्णतां धयंशुक्लध्यानद्वयं वा न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति । ( वोहिं जिणसासणे विमले ) बोधि सम्यग्दर्शनशानचारित्रलक्षणां न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति जिनशासने श्रीमद्भगवद युक्ता' इस छाया के अनुसार एक अर्थ यह भी किया है कि जो मुनि अर्हन्त भगवान् की भावना को छोड़ कर राज-सेवा करते हैं-राजदरबार में आना जाना आदि कार्यों में व्यासक्त रहते हैं। इसके सिवाय जो जिन-भावना जिन-श्रद्धा से रहित होकर मात्र द्रव्य-निग्रंन्थ हैं-नग्न रूपको धारण करने वाले हैं अथवा जिन भावना का अर्थ तीर्थंकर नाम कर्म के बन्धमें कारणभूत दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह भावनाएं भी हैं सो जो इन भावनाओं से रहित होकर मात्र द्रव्य से निर्ग्रन्थ हुए हैं-मात्र नग्न रूपको धारण करने वाले हैं अथवा जो इन भावनाओं से रहित होकर मात्र द्रव्य-धनके लिये नग्न मुद्रा धारण करते हैं अर्थात् नग्न-मुद्रा धारण कर नाना प्रकार के धर्मके मिष से द्रव्यका उपार्जन करते हैं वे मुनि समाधि अर्थात् रत्नत्रय को पूर्णता और अथवा धर्म्य-ध्यान और शुक्लध्यान इन दो उत्तम ध्यानोंको एवं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी बोधिको नहीं प्राप्त होते हैं। जिनेन्द्र भमवान् का शासन विमल है, पूर्वा-पर विरोध से रहित है अथवा कर्म मल कलङ्क के क्षयका कारण है। ऊपर दर्शन विशुद्धि आदि जिन सोलह भावनाओं का उल्लेख हुआ है वे दर्शन-विशुद्धि अर्थात् जिन-सम्यक्त्व से सहित सबकी सब हो अथवा पृथक्-पृथक् हो तीर्थंकर प्रकृति नामक नाम कर्मका बन्ध कराने वाली हैं। किन्तु दर्शनविशुद्धि से रहित शेष पन्द्रह भावनाएँ भी हों तो भी तीर्थकर प्रकृति का बन्ध नहीं कराती हैं। जैसा कि कहागया है एकापि-यह एक जिन-भक्ति दर्शन-विशुद्धि कुशल मनुष्य की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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