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षट्प्राभृते
[३. १२प्रमुखाः, परिग्रहाः क्षेत्रवास्त्वादयस्तेषु विरतो विरक्तो भवति । अपि शब्दः समुच्चये वर्तते । तेन ब्रह्मचर्यादयो गृह्यन्ते तस्माद् 'ब्रह्मचर्यधरो यति' रिति । वचनात् । ( सो होइ वंदणीओ) स मुनिर्वन्दनीयो भवति । क्व वन्दनीयो भवति ? ( ससुरासुरमाणुसे लोए) लोके त्रिभुवने वन्दनीयो भवति । कथंभूते लोके ? ससुरासुरमानुषे देवदानवमानवसहिते ॥११॥
जे वावोसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू ॥ १२॥
ये द्वाविंशतिपरीषहान् सहन्ते शक्तिशतैः संयुक्ताः ।
ते भवन्ति वन्दनीयाः कर्मक्षयनिर्जरासाधवः ॥१२|| (जे वावीसपरीसह सहति ) ये द्वाविंशति परीषहान् सहन्ते । ( सत्तीसएहि संजुत्ता ) शक्तीनां शतैः संयुक्ताः । ( ते होंति वंदणीया ) ते भवन्ति वन्दनीया नमोऽस्तु शब्द-योग्याः । ( कम्मक्खयं निज्जरासाहू ) कर्मक्षयनिर्जरासाघवः ये कर्मक्षये निर्जरायां च साधवः कुशला भवन्ति योग्या भवन्तीति भावः ॥१२॥
विशेषार्थ-इन्द्रिय-संयम और प्राण-संयमके भेदसे संयमके दो भेद . हैं। सेवा, कृषि, वाणिज्य आदिको आरम्भ कहते हैं तथा क्षेत्र, मकान आदिको परिग्रह कहते हैं । जो मुनि इन्द्रियसंयम और प्राणो-संयम से सहित है तथा आरम्भ और परिग्रहों से विरत है। साथ ही ब्रह्मचर्य आदि गुणों से यक्त है वही देव दानव और मनुष्यों से सहित लोक में वन्दना करने के योग्य हैं। इसके सिवाय असंयमी, आरम्भ और परिग्रह के जालमें फंसे हुए अन्य साधु सम्यग्दृष्टि के द्वारा वन्दना करने योग्य नहीं है ।।११॥
गाथार्थ-जो बाईस परिषह सहन करते हैं, सैकड़ों शक्तियों से सहित हैं, तथा कर्मोंके क्षय और निर्जरा करने में कुशल हैं, ऐसे मुनि वन्दना करने योग्य हैं ॥ १२ ॥
विशेषार्थ क्षुधा-तृषा-शोत-उष्ण-दंशमशक नाग्न्य-अरति-स्त्री-चर्यानिषद्या-शय्या-आक्रोश-वध-याचना-अलाभ-रोग-तृणस्पर्श- मल-सत्कारपुरस्कार-प्रज्ञा-अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परिषह हैं। जो मनि समता भावसे इन बाईस परिषहों को सहते हैं, पक्षोपवाम मासोपवास आदि उग्र तपश्चरण की शक्ति से युक्त हैं और कर्मोंके क्षय तथा निर्जरा में कुशल हैं, वे मुनि वन्दनीय हैं अर्थात् उन्हें 'नमोऽस्तु' कहकर नमस्कार करना चाहिये ॥१२॥
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