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-४. २६ ] बोधप्राभृतम्
१७७ अथेदानी गाथाद्वयेन तीर्थ निरूपयन्ति श्रीपद्मनन्दिदेवाःवयसम्मत्तविसुद्धे पाँचदियसंजदे णिरावेखे । व्हाएउ मुणी तित्थे दिक्खासिक्खासुण्हाणेण ॥२६॥
व्रतसम्यक्त्वविशुद्धे पञ्चेन्द्रियसंयते निरपेक्षे ।
स्नातु मुनिस्तीर्थे दीक्षाशिक्षासुस्नानेन ॥२६|| ( वयसम्मत्तविसुद्धे ) व्रतैरहिंसासत्यास्तेयब्रह्मापरिग्रहलक्षणः पञ्चभिर्महावत: सम्यक्त्वेन च पञ्चरहिविंशतिमलहरीहितेन तत्वार्थश्रद्धानलक्षणेन, विशुद्ध विशेषेण निर्मले चर्मजलाद्यास्वादनरहिततयाष्कश्मले तीर्थे । (पचिदियसंजदे णिरावेवखे ) पचेन्द्रियसंयते पंचेन्द्रियाणि स्पर्शनरसन्घ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणानि संयतानि बद्धानि
अब आगे श्री कुंदकुंद देव दो गाथाओं द्वारा तीर्थ का निरूपण करते हैं। ___ गाथार्थ-मुनि, व्रत और सम्यक्त्व से विशुद्ध, पञ्चेन्द्रियों से नियन्त्रित और बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से रहित शुद्धात्मस्वरूप तीर्थमें दीक्षा तथा शिक्षा रूप उत्तम स्नान से स्नान करे ॥२६॥ ___ विशेषार्थ-यहाँ जिस शुद्ध बुद्धकस्वभाव रूप लक्षण से युक्त एवं संसार समुद्रसे तारनेमें समर्थ निजात्मस्वरूप तीर्थ-जलाशय में मुनिको स्नान करनेको प्रेरणा की गई है, वह व्रत तथा सम्यक्त्व से विशुद्ध है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच व्रत अथवा महा. व्रत हैं शङ्का, कांक्षा, विाचकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना नामक आठ दोष, ज्ञानमद आदि आठ मद. लोकमूढ़ता आदि तीन मूढताएं और कुदेव आदि छह अनायतन इन पच्चीस मलोंसे रहित तत्त्वार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इन दोनों • के द्वारा वह तीर्थ विशुद्ध है-अत्यन्त निर्मल है, साथ ही चर्मपात्र में रखे
हुए जके सेवन आदि से रहित हानेके कारण अकश्मल है-उज्ज्वल है। • वह तीथ पञ्चेन्द्रियों से संयत है-स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र ये
पाँचों इन्द्रियाँ जिसमें संयत हैं-बद्ध हैं-स्पर्श रस गन्ध रूप और शब्द इन पांच विषयोंसे रहित हैं, इसके सिवाय वह तीर्थ निरपेक्ष है-बाह्य वस्तुओं की अपेक्षासे रहित है ख्याति, लाभ आदिको आकांक्षाओंसे रहित है और माया मिथ्यात्व तथा निदान इन तीन शल्योंसे वर्जित है । इसो तीर्थ में प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान से युक्त, महात्मा, महानुभाव मुनि को स्नान
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