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________________ २८७ -५.३५ ] भावप्राभृतम् पडिदेससमयपुग्गलआउगपरिणामणामकालटुं । गहिउमियाई बहुसो अणंतभवसायरे जीव ॥३५॥ - प्रतिदेशसमयपुद्गलायुपरिणामनामकालस्थम् । ___ गृहीतोज्झितानि बहुशः अनन्तभवसागरे जीव ॥३५॥ (पडिदेस ) यावन्तः प्रदेशा लोकाकाशस्य वर्तन्ते एककं प्रदेशं प्रति शरीराणोति पूर्वोक्तमेव ग्राह्य गृहतोज्झितानि । तथा (सम्यपुग्गल) प्रतिसमय-समयं समयं नेमिचन्द्र' इत्यादि श्रेष्ठमुनियोंने जो शास्त्र रचे हैं यथार्थमें वे ही शास्त्र ग्रहण करने योग्य हैं। अन्य विविध अथवा विरुद्ध संघवालोंके द्वारा रचित शास्त्र ठीक होनेपर भो प्रमाण नहीं मानना चाहिये ॥ १-५ ॥ ___ गाथार्य-हे जीव ! तूने भाव-लिङ्गके बिना अनन्त संसार सागरमें प्रत्येक देश, प्रत्येक समय, प्रत्येक पुद्गल, प्रत्येक आयु, प्रत्येक परिणाम, १. यहां आचार्योकी जो नामावली दी है उसमें काल-क्रमकी अपेक्षा नहीं की गई : है तथा अन्य जिन प्रामाणिक आचार्योंके नाम रह गये हैं उनका 'इत्यादि मुनिसत्तमः' पदमें दिए हुए इत्यादि पदसे संकलन जानना चाहिये। २. ३४ वीं गायाका भाव पं० जयचन्द्रजोने अपनी भाषा वचनिकामें इसप्रकार स्पष्ट किया है अर्थ-यह जीव या संसार विर्षे जामें परम्परा भावलिङ्ग न भया संता अनन्तकाल पर्यन्त जन्मजरा मरण कर पीडित दुःख ही कू प्राप्त भया । ___भावार्थ-द्रव्यालङ्ग धारया अर तामैं परम्परा करि भी भाव लिङ्गकी प्राप्ति न भई यात द्रव्यलिङ्ग निष्फल गया, मुक्तिकी प्राप्ति नहीं भई, संसार ही मैं भ्रम्या। यहाँ आशय ऐसा जो द्रव्यलिङ्ग है सो भावलिङ्गका साधन है परन्तु काललब्धि बिना द्रव्यलिङ्ग धारे भी भावलिङ्गकी प्राप्ति न होय यातें द्रव्यलिङ्ग निष्फल जाय है ऐसे मोक्षमार्ग प्रधानकरि भावलिंग ही है। यहाँ कोई कहै है ऐसें है तो द्रव्यलिंग पहले काहे . धारणा ? तापू कहिये ऐसे मानें तो व्यवहारका लोप होय है तातें ऐसें मानना जो द्रव्यलिंग पहले पारघा, ऐसा न जानना जो थाही ते सिद्धि है, भावलिंग फू प्रधान मानि . तिसकं सन्मुख उपयोग राखनां, द्रव्यलिंग फू यत्न त साधना, ऐसा श्रदान भला है ॥ ३४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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