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________________ ૨૮૮ षट्प्राभृते [५.३५प्रति प्रतिसमयं शरीराणि गृहीतोमितानि । प्रतिपुद्गलं प्रतिपरमाणु-परमाणु परमाणु प्रति प्रतिपरमाणु अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । (आउगं) प्रत्यायु आयुः आयुः प्रति प्रत्यायुः अनन्तानि शरीराणि गृहीतोमितानि । (परिणाम ) परिणामं परिणाम प्रति प्रतिपरिणामं क्रोधमानमायालोभमोहरागद्वेषादिपरिणामान् प्रति प्रतिपरिणाम अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । (णाम) . नाम नाम प्रति प्रतिनामं नपुंसकं चेति वचनाद्वाऽदन्तो निपातः, यावन्ति नामानि गतिजात्यादीनि वर्तन्ते तावन्ति प्रति अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । ( कालटुं) प्रतिकालस्थं उत्सपिण्यवसर्पिणीकालस्थं यथा भवत्येवं तत्समयांश्च प्रति प्रतिकालस्थं अनन्तानि शरीराणि गृहीतोमितानि ( गहिउज्झियाइ बहुसो) गृहीतोज्झितानि बहुशोऽनन्तवारान् । ( अणंतभवसायरे जीव ) अनन्तभवसागरेनन्तानन्तसंसारसमुद्रे हे जोव ! हे आत्मन्निति । जिनसम्यक्त्वं विनेति भावार्थः । जिनसम्यक्त्वभावेन त्वनन्तसंसार उच्छिद्यते स्तोककालेन मुक्तो भवति । प्रत्येक नामकर्म और प्रत्येक काल में स्थित हो अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं ।। ३५ ॥ विशेषार्थ हे आत्मन् ! सम्यक्त्वरूप भावलिङ्गके विना तूने लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं, एक एक कर उन सब प्रदेशों पर स्थित होकर अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं । प्रत्येक समयमें तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। पुद्गलके प्रत्येक परमाणु पर स्थित हो तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। प्रत्येक आयुमें तूने अनन्त शरीर धारण कर छोड़े हैं अर्थात् जघन्य आयुसे लेकर उत्कृष्ट आय तक आयुके जितने विकल्प हैं उन सबमें उत्पन्न होकर तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि समस्त परिणामोंकी अपेक्षा तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं । गति जाति आदि नाम कर्मके जितने विकल्प हैं उन सबकी अपेक्षा तुने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। और उत्सपिणो तथा अवसर्पिणी कालमें स्थित हो उसके प्रत्येक समयकी अपेक्षा तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। इस तरह अनन्तानन्त संसार सागर के बीच हे जोव! तूने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पांच परिवर्तनोंको अनन्तवार पूरा किया है। तेरे इस परिभ्रमणका कारण जिन-सम्यक्त्वका अभाव रहा है । जिनसम्यक्त्वरूप भावके द्वारा अनन्त संसारका छेद हो जाता है तथा अल्प कालमें जीव मुक्त हो जाता है॥३५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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