SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८९ -५. ३६] भावप्रामृतम् तेयाला तिण्णिसया रज्जूणं लोयखेत्तपरिमाणं । मुत्तूणटुपएसा जत्थ ढुरुदल्लिओ जीवो ॥३६॥ त्रिचत्वारिंशत्त्रीणि शतानि रज्जूनां लोकक्षेत्रपरिमाणं । मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः ॥३६।। ( तेयाला तिण्णि सया रज्जूणं ) त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशतरज्जूघनाकाररज्जूनां च ( लोयकवेत्तपरिमाणं) लोकक्षेत्रपरिमाणं भवति ( मुत्तूणटुपएसा ) मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् मेरुकंदे गोस्तनाकारण येऽष्टप्रदेशा वर्तन्ते तन्मध्ये जीवो नोत्तन्नो न मृतः अन्यत्र सर्वत्र जातो मृतश्चार्य जीवः । तेऽष्टौ प्रदेशा निजात्मशरीरमध्ये गाथार्थ-तीनसौ तेतालीस राज लोक क्षेत्रका परिमाण है। इसके आठ मध्य प्रदेशों को छोड़ कर, ऐसा कोई प्रदेश नहीं जिसमें यह जीव नहीं घूमा हो ॥३६॥ विशेषार्थ-यह लोक चौदह राजु ऊँवा है। लोकके नोचे पूर्व से पश्चिम तक सात राजु चौड़ा है, फिर क्रमसे घटता घटना मध्य लोके यहाँ एक राजु चौड़ा है, फिर क्रमसे बढ़ता बढ़ता पांचवं ब्रह्मस्वर्ग के यहां पाँच राजु चौड़ा है, फिर क्रमसे घटता घटता अन्तमें एक राजु चौडा है। उत्तरसे दक्षिण तक सब जगह सात राजु विस्तार वाला है। इन सब का क्षेत्रफल निकालने पर सम्पूर्ण लोकका क्षेत्र तीन सौ तेतालोस घन गजु प्रमाण होता है । मेरु पर्वत की जड़में गोस्तनके आकार लोकके जा आठ मध्य प्रदेश हैं उनमें यह जीव न उत्पन्न हुआ है और न मग है, शेष सब जगह उत्पन्न हुआ तथा मरा है। उन आठ प्रदेशोंका इस ज वने अपने शरीरके मध्य ग्रहण तो किया है परन्तु उनमें उत्पन्न नहीं हुआ ऐसा वद्धजनों का कथन है। इस तरह गाथाका अर्थ इस प्रकार होता है कि १. अत्र 'च' शब्दोऽधिकः प्रतिभाति । २. जीवके सर्व जघन्य शरीरको अवगाहना धनांगुलके असंख्येय भाग प्रमाण होती है। यह अवगाहना लोकके आठ मध्यप्रदेशों से बहुत बड़ी होती है इसलिये उनमें समूचे जीवकी न उत्पत्ति हो सकती है और न मरण हो सकता है किन्तु क्षेत्र परिवर्तन को पूरा करते समय जीव उन आठ मध्यप्रदेशोंको अपने शरीरके मध्य प्रदेश बनाकर अनन्त बार उत्पन्न हुआ तथा मरा है। श्रीकुन्दकुन्दस्वामी ने इस गाथामें -मुत्तणठ्ठपएसा'-आठ प्रदेशोंको छोड़कर अन्यत्र सब जगह भ्रमण करनेकी बात लिखी है परन्तु उन्हीं कुन्दकुन्द Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy