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________________ २९० षट्प्राभृते [ ५.३७ गृहीतास्तन्मध्ये नोत्पन्न इति वृद्धा । ( जत्थ ण बुरुहुल्लिओ जीवो) यत्रात्मा न पर्यटितः स कोऽपि प्रदेशो नास्ति । " पर परी बुस तुम कुम् गुम् भुम झंप रुंट तलयंट भमाड भमड भम्मड चक्कम्म ढंढल्ल ढुढुल्ल टिरिटिल्ल ढुरुदुल्लभ्रमेः” इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण भ्रमधातोः दुरुदुल इत्यादेशः । घनपालकृतदेशीलक्ष्म्यां तु "घालिय 'बुल्लियाइ भमियत्थे " सूत्रं । एक्क्कंगुलिवाही छष्णवदी होंति जाणमणुयाणं । अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया' भणिया ॥ ३७॥ तीन सौ तेतालीस घनराजु प्रमाण लोकक्षेत्र में आठ प्रदेशोंको छोड़कर ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ इस जीवने भ्रमण न किया हो । 'दुरुदुल्लिओ' यहाँ पर 'पर परी ढुस ढुम' - आदि प्राकृत व्याकरण सूत्रके द्वारा भ्रम धातुके स्थान में 'दुरु दुल्ल' आदेश हो गया है परन्तु धनपाल कृत देशी लक्ष्मी में घोलिय ढुंढुलियाइ भमियत्थे' यह सूत्र है || ३६॥ गाथार्थ - हे जीव ! मनुष्योंके एक एक अंगुल में छियानवें रोग होते हैं फिर समस्त शरीर में कितने रोग कहे गये हैं सो कह ।। ३७ ।। स्वामी ने वारसपेक्खा की संसार भावना में निम्नलिखित गाथा द्वारा समस्त लोकक्षेत्र में भ्रमण करनेका निरूपण किया है सम्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण उप्पणं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ||३६|| अर्थ - समस्त लोक क्षेत्रमें वह स्थान नहीं है जहाँ यह जीव क्रमसे उत्पन्न न हुआ हो । अपनी अवगाहन के द्वारा इस जीवने क्षेत्रमें अनेकबार भ्रमण किया है । यही गाथा श्री पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धिमें भी ज्यों की त्यों उद्धृतकी है तथा लिखा है कि यह जीव लोकके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके मध्य प्रदेश करके उतनी बार उत्पन्न होता है जितने कि घनांगुलके असंख्येयभाग प्रमाण अवगाहना के प्रदेश होते हैं । संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरिने दोनों कथनोंकी संगति बैठाने का प्रयत्न किया है। १. पंचैव य कोडीयो तह चेव अडसट्ठिलक्खाणि । णवणउदि च सहस्सा पचसया होंति चुलसीदी || • अर्थ - समस्त शरीर में पांच करोड़ अठसठ लाख निन्यानवें हजार पांचसी चौरासी रोग हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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