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षट्प्राभृते
'अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ।।
निःसन्देहं
ईदृग्विधं ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं च निश्चयनयेन ( अप्पाणं तं वियाणेह ) आत्मानं तज्ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं च हे भव्य ! त्वं विजानीहि सम्यग्विचारयेति क्रियाकारकसम्बन्धः ।। ३७।।
आगे सम्यग्ज्ञानी का लक्षण कहते हैंजीवाजीवविहत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी । रायादिदोसर हिओ जिणसासणे मोक्खमग्गुत्ति ॥ ३८॥ जीवाजीवविभक्ति यो जानाति स भवेत्संज्ज्ञानः रागादिदोषरहितो जिनशासने मोक्षमार्ग इति ||३८||
[ २.३८
( जीवाजीव विहत्ती ) जीवस्यात्मद्रव्यस्य, अजीवस्य पुद्गल - धर्माधर्मं कालाकाशलक्षणस्य पञ्चभेदस्य विभक्त विभञ्जनं विचनमिति देश्यात् । ( जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी ) यो जानाति स भवेत् सज्ज्ञान: । ( रायादिदोस रहिओ ) स ज्ञानी कथंभूतः ? रागादिदोषरहितः रागद्वेषमोहादिदोषरहितः । ( जिणसासणेमोक्ख मग्गुत्ति ) जिनशासने मोक्षमार्ग इति ||३८||
अन्यून – जो पदार्थको न्यूनता रहित, अधिकता-रहित, ज्योंका त्यों विपरोत भाव तथा सन्देह के विना जानता है उसे आगमके ज्ञाता सम्यज्ञान कहते हैं ।
निश्चय नयसे गुण और गुणीमें अभेद रहता है अतः आत्मा उक्त सम्यग्ज्ञान रूप ही है ऐसा जानना चाहिये ||३७||
गाथार्थ - जो जीव और अजीवके विभागको जानता है वह सम्यम्ज्ञानी है, रागादि दोषोंसे रहित है और जिन शासन में मोक्षमार्ग रूप कहा गया है ॥३८॥
विशेषार्थ - आत्मद्रव्यको जीव द्रव्य कहते हैं, पुद्गल तथा धर्म, अधर्म, काल और आकाशके भेदसे अजीव पाँच प्रकार का है। जो इन दोनोंके भेद--पार्थक्यको जानता है वह सम्यग्ज्ञानी है । वह सम्यग्ज्ञानी राग, द्वेष और मोह आदि दोषोंसे रहित है तथा अभेद नयसे वह स्वयं मोक्षमार्ग है ||३८||
१. २० क० समन्तभद्रस्य ।
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