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-२. ३९.४०] चारित्रप्राभृतम्
१०१ दंसणणाणचरित्तं तिण्णिवि जाणेह परमसद्धाए। जं जाणिऊण जोई अइरेण लहंति णिव्वाणं ॥३९॥ दर्शनज्ञानचारित्रं त्रीण्यपि जानीहि परमश्रद्धया।
यद्ज्ञात्वा योगिनो अचिरेण लभन्ते निर्वाणम् ॥३९॥ (दसणणाणचरितं ) दर्शनज्ञानचारित्रं ( तिण्णिवि जाणेह परमसद्धाए ) त्रीण्यपि जानीहि परमश्रद्धया प्रकृष्टरुच्या। ( जं जाणिऊण जोई ) यद्ददर्शनज्ञानचारित्रं ज्ञात्वा योगिनः। ( अइरेण लहंति णिवाणं ) अचिरेण स्तोककालेन लभन्ते प्राप्नुवन्ति । किं तत् ? निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमिति ।।३९।।
पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता । होति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ॥४०॥
प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः ।
भवन्ति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥४०॥ (पाऊण णाणसलिलं) प्राप्य ज्ञानसलिलं लब्ध्वा सम्यग्ज्ञानपानीयं ( णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता) निर्मलो निरतिचारः, सुविशुद्धो रागद्वेषमोहादिरहितः, भावो निजात्मपरिणामस्तेन संयुक्ताः सहिताः पुरुषः । ( होति सिवालयवासी ) भवन्ति शिवालयवासिनः सर्वकर्मक्षयलक्षणनिर्वाणपदनिवासिनो भवन्ति । (तिहुवणचूडा
- गाथार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंको परमश्रद्धा से जानो। क्योंकि इन्हें जानकर योगी शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त हो जाते हैं ।।३९॥
विशेषार्थ-कुन्दकुन्द स्वामी भव्यजीवोंको प्रेरणा करते हैं कि हे भव्य जीवो! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंको उत्कृष्ट रुचि-पूर्वक जानो क्योंकि इन्हें जानकर योगी-मुनिराज थोड़े ही समयमें सर्व कर्म क्षयरूप मोक्षको पा लेते हैं ॥३९॥ . गावार्थ--सम्यग्ज्ञान रूपी जलको पाकर निर्मल और विशुद्धभाव से सहित पुरुष मोक्ष-महलके वासी, त्रिभुवनके चूडामणि सिद्ध होते हैं ॥४०॥
विशेषार्थ-जो मनुष्य सम्यग्ज्ञान रूपी बलको पाकर निरतिचार एवं रागद्वेष मोहादिसे रहित स्वकीय आत्म परिणामसे युक्त होते हैं वे समस्त कोका क्षयकर निर्वाण रूपी प्रासाद में निवास करते हैं। तीन
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