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________________ -२. ३७ ] चारित्रप्राभृतम् ९९ दीओ पञ्चसमितीरिति तात्पर्यार्थः । विस्तरस्तु वट्टकेर 'वीरनन्द्यादिविरचिता - चार ग्रन्थेषु ज्ञातव्यः ।। ३६॥ आगे 'ज्ञानरूप आत्मा है' यह कहते हैं भव्वजण बोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेह जह भणियं । गाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि ॥३७॥ भव्यजन बोधनार्थं जिनमार्गे जिनवरैर्यथा भणितम् । ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि ॥३७॥ ( भव्वजण बोहणत्थं ) सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - रत्नत्रयप्राप्ति-योग्या ये ते भव्यजनास्तेषां बोघनार्थं सम्बोधननिमित्तं । ( जिणमग्गे ) जिनस्य श्रीमद्भगवदहंत्सर्वज्ञस्य मार्गे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणोपलक्षिते मोक्षमार्गे । ( जिणवरेह जह भणियं ) श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञैर्यथा भणितं प्रतिपादितं । किं तद्भणितम् ? ( गाणं णाणसरूवं ) ज्ञानं व्यवहारनयेन सम्यग्ज्ञानं तथा ज्ञानस्य स्वरूपं स्वभावः । उक्तं च समन्तभद्रेण कविना ज्ञानस्य स्वरूपम् - स्वामी ने आदान और निक्षेप को पृथक् पृथक् समिति मानकर उसने समितिको निक्षेप समिति में गर्भित कर दिया है । गाथार्थ - भव्य जीवों को समझानेके लिये जिन-मार्ग में जिनेन्द्र देवने ज्ञानका जैसा स्वरूप कहा है उस ज्ञान स्वरूप आत्माको जाने ||३७|| विशेषार्थ - ज़ो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नकी प्राप्ति के योग्य होते हैं, वे भव्य कहलाते हैं । उन भव्य जीवों को समझाने के लिये श्रीमान् भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञदेव के मार्ग में अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप लक्षणसे युक्त मोक्षमार्ग में श्रीमान् सर्वज्ञ भगवान् ने व्यवहार नयसे सम्यग्ज्ञानका जैसा स्वरूप कहा है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा का हे भव्य ! तू अच्छी तरह विचार कर । सम्यग्ज्ञानका स्वरूप कवि श्री समन्तभद्र स्वामी ने कहा है १. वट्टकेरल म० । २. महाकविना म० । Jain Education' International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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