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________________ ७०० षट्नाभूते [८. १८१९सव्वे वि य परिहोणा स्वविरुवा वि वदिदसुवया वि । सोल जेसु सुसोलं सुजोविदं माणुसं तेसि ॥१८॥ सर्वेऽपि च परिहीना रूपविरूपा अपि पतितसुवयसोऽपि । शीलं येषु सुशीलं सुजीवितं मनुष्यत्वं तेषां ॥१८॥ जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे। .. सम्मदंसणणाणं तओ य सीलस्स परिवारो ॥१९॥ जीवदया दमः सत्यं अचौर्य ब्रह्मचर्यसन्तोषो। सम्यग्दर्शनं ज्ञानं तपश्च शीलस्य परिवारः ॥१९॥ गुण से रहित हैं वे श्रुतके पारगामी होकर भी लोकमें तुच्छ-अनादरणीय बने रहते हैं। भावार्थ-शीलवान् जीवों को पूजा प्रभावना मनुष्य तो करते ही हैं परन्तु देव भी करते देखे जाते हैं परन्तु दुःशील अर्थात् खोटे शील से युक्त मनुष्यों को अनेक शास्त्रों के ज्ञाता होनेपर भी कोई नहीं पूछता है वे सदा तुच्छ बने रहते हैं। यहाँ 'अल्पका' का अर्थ संख्याके अल्प नहीं है किन्तु तुच्छ अर्थ है संख्या की अपेक्षा तो दुःशील मनुष्य ही अधिक है शीलवान् नहीं ॥१७॥ सम्वे वि य-जो सभी में होन हैं अर्थात् हीन जाति के हैं, रूप से विरूप हैं अर्थात् कुरूप हैं और जिनको अवस्था बीत गई है अर्थात् वृद्धअवस्था से युक्त हैं इन सबके होने पर भी जिनमें शील सुशील है अर्थात् जो उत्तम शीलके धारक हैं उनका मनुष्यपना सुजीवित है-उनका मनुष्य भव उत्तम है। भावार्थ-जाति, रूप तथा अवस्था की न्यूनता होने पर भी उत्तम शील मनुष्यके जीवन को सफल बना देता है इसलिये सुशील प्राप्त करना चाहिये ।।१८॥ जीवदया-जीव दया, इन्द्रिय दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्तप ये सब शीलके ही परिवार हैं। - भावार्थ-जिस मनुष्य के उत्तम शील होता है उसके जीव दया, इन्द्रिय दमन आदि गुण स्वयं प्रकट होजाते हैं ॥१९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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