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-८. १५-१७] शीलप्राभृतम्
६९९ रूवसिरिगन्विदाणं जुव्वणलावण्णकतिकलिदाणं । सोलगुणवज्जिदाणं णिरत्ययं माणुसं जम्मं ॥१५॥
रूपश्रीगवितानां यौवनलावण्यकान्तिकलितानां ।
शीलगुणजितानां निरर्थकं मातुषं जन्म ॥१५॥ वायरणछंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु । वेदेऊण सुदेसु य तेसु सुयं उत्तम सोलं ॥१६॥
व्याकरणछन्दो वैशेषिकव्यवहारन्यायशास्त्रेषु ।
विदित्वा श्रुतेषु च तेषु श्रुतं उत्तम शीलं ॥१६॥ सीलगुणमंडिदाणं देवा भवियाण वल्लहा होति । सुदपारयपउरा गं दुस्सीला अप्पिला लोए ॥१७॥
शीलगुणमण्डितानां देवा भव्यानां वल्लभा भवन्ति । श्रतपारगप्रचुरा दुःशीला अल्पकाः लोके ।।१७।।
- रूपसिरि-जो मनुष्य सौन्दर्य रूपी लक्ष्मी से गर्वीले तथा यौवन, लावण्य और कान्ति से युक्त हैं किन्तु शोल गुण से रहित हैं तो उनका मनुष्य जन्म निरर्थक है।
भावार्थ-कितने ही मनुष्य अत्यन्त रूपवान् यौवन, लावण्य और कान्ति से युक्त होते हैं परन्तु शील गुणसे रहित होकर निरन्तर विषय वासनाओं में फंसे रहते हैं सो आचार्य कहते हैं कि उनका मनुष्य जन्म पाना निरर्थक है । मनुष्य जन्म की सार्थकता तो रत्नत्रय की उपासना कर मोक्ष प्राप्त करनेमें ही है जिन पुरुषोंने मनुष्य जन्म पाकर रत्नत्रय की उपासना नहीं की उल्टे विषयों में निमग्न रहे उनका मनुष्य जन्म निरर्थक ही समझना चाहिये ॥१५॥
वायरण-कितने ही लोग व्याकरण, छन्द, वैशेषिक, व्यवहार, गणित तथा न्याय शास्त्रको जानकर श्रुतके धारी बन जाते हैं परन्तु उनमें यदि शील होवे तभी उत्तम है।
भावार्थ-शोल समताभावको कहते हैं उसके बिना अनेक लौकिक शास्त्रों के ज्ञाता हो जाने पर मनुष्य कल्याणके मार्गसे दूर रहते हैं इसलिये सर्व प्रथम शील को प्राप्त करने का प्रयत्न श्रेयस्कर है ।।१६।।। ___ सोलगुण-जो भव्य पुरुष शील गुणसे सुशोभित हैं उनके देव भी प्रिय हो जाते हैं अर्थात् देव भो उनका आदर करते हैं और जो शील
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