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षट्प्राभृते [८. १३-१४ विसएसु मोहिदाणं कहियं मग्गं पि इट्ठदरिसीणं । उम्मग्गं दरिसीणं गाणं पिणिरत्थयं तेसि ॥१३॥ विषयेषु मोहितानां कथितो मार्गोऽपि इष्टदर्शिनां ।
उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषा॥१३॥ . कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाई सत्याणि । सोलवदणाणरहिवा ण हु ते आराधया होति ॥१४॥ कुमतकुश्रुतप्रशंसां (सकाः) क्षानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि। शीलव्रतज्ञानरहिता न ह ते आराधका भवन्ति ॥१४॥
विषयों से अपने चित्त को सदा उदासीन रखते हैं उन्हें निश्चित हो मोक्ष प्राप्त होता है ॥१२॥ . विसएसु-जो मनुष्य इष्ट-लक्ष्य को देख रहे हैं वे वर्तमान में भले ही विषयों में मोहित हों तो भी उन्हें मार्ग प्राप्त हो गया है ऐसा कहा गया है परन्तु जो उन्मार्ग को देख रहे हैं अर्थात् लक्ष्य से भ्रष्ट हैं उनका ज्ञान भी निरर्थक है।
भावार्थ-एक मनुष्य दर्शनमोहनीय का अभाव होने से श्रद्धा गुण के प्रकट हो जाने पर अपने लक्ष्य प्राप्तव्य मार्ग को देख रहा है परन्तु चारित्र मोहका तीव्र उदय होने से उस मार्ग पर चलने के लिये असमर्थ है तो भी कहा जाता है कि उसे मार्ग प्राप्त हो गया है परन्तु दूसरा मनुष्य अनेक शास्त्रों का ज्ञान होने पर भी मिथ्यात्व के उदय के कारण अपने गन्तव्य मार्ग को न देख उन्मार्ग को देख रहा है तो ऐसे मनुष्य का वह भारी ज्ञान भी निरर्थक होता है ॥१३॥
कुमय-जो नाना प्रकारके शास्त्रों को जानते हुए भी मिथ्यामत और मिथ्याश्रुत की प्रशंसा करते हैं तथा शील व्रत और ज्ञानसे रहित हैं वे स्पष्ट ही आराधक नहीं हैं।
भावार्थ-कितने ही लोग नाना शास्त्रों के ज्ञाता होकर भी मिथ्या मत और मिथ्याश्रुत की प्रशंसा करते हैं सो उनका ऐसा करना मिथ्यात्व का चिह्न है क्योंकि अन्य दृष्टि प्रशंसा और अन्य दृष्टि संस्तव सम्यग्दर्शन के दोष हैं । साथ ही शील अर्थात् समता परिणाम, व्रत और यथार्थ ज्ञानसे रहित हैं अतः ऐसे लोग आराधक नहीं हैं-मोक्षमार्गकी आराधना करने वाले नहीं हैं ॥१४॥
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