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शोलप्राभूतम्
णाणेण दंसणेण य तवेण चरिएण सम्मस हिएण ।
- ८. ११-१२ ]
होहदि परिणिव्वाणं जीवाणं
ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण भविष्यति परिनिर्वाणं जीवानां
सोलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाण
अस्थि धुवं णिव्वाणं विसrसु
विरतचित्ताणं ॥ १२ ॥
शीलं रक्षतां दर्शनशुद्धानां दृढचारित्राणां । अस्ति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानां ॥ १२ ॥
चरितसुद्धाणं ॥ ११ ॥
सम्यक्त्वसहितेन । चारित्रशुद्धानां ॥ ११ ॥ दिढचरित्ताणं ।
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सो वह उनके ज्ञान का अपराध नहीं है किन्तु मन्द बुद्धि से युक्त उसका पुरुषका ही अपराध है ।
भावार्थ-संसार में कितने ज्ञानो तपी विषयों में अनुरक्त देखे जाते हैं सो यह दोष उनके ज्ञान का नहीं है किन्तु ज्ञान के साथ मोह की धारा ने मिलकर उन पुरुषों की जो मन्दबुद्धि और पुरुषार्थहीन बना दिया है सो यह अपराध उसी पुरुषार्थं हीन मन्द बुद्धि पुरुष का है ||१०||
णाणेण - निर्दोष चारित्र का पालन करने वाले जीवों को सम्यक्त्व सहित ज्ञान, सम्यक्त्व सहित दर्शन, सम्यक्त्व सहित तप और सम्यक्त्व सहित चारित्र से निर्वाण प्राप्त होगा ।
भावार्थ - जैनागम में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्तप और सम्यक् चारित्र इन चार आराधनाओं से मोक्ष प्राप्ति होती है ऐसा कहा गया है। परन्तु ये चारों उन्हीं जोवों के मोक्ष का कारण होती हैं जो चारित्र से शुद्ध होते हैं अर्थात् प्रमाद छोड़ कर निर्दोष चारित्र का पालन करते हैं ॥११॥
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सोलं— जो शील की रक्षा करते हैं, जो शुद्ध दर्शन - निर्मल सम्यक्त्व से सहित हैं, जिनका चारित्र दृढ़ है और जो विषयों से विरक्त चित्त रहते हैं उन्हें निश्चित ही निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
भावार्थ - शील का अर्थ आत्माका वीतराग स्वभाव है सो जो पुरुष सदा इसकी रक्षा करते हैं अर्थात् विषय कषाय के कारण अपने वीतराग स्वभाव को नष्ट नहीं होने देते, जो कठिन तपश्चरण करने पर भी है देवादिकृत अतिशयों को न देख अपने सम्यक्त्व में कभी दोष नहीं लगाते हैं, जो परिषहादिक के आने पर भी चारित्र से विचलित नहीं होते और
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