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-८. २०-२२] शोलप्राभृतम्
सोलं तवो विसुद्धं दंसणसुद्धी य णाणसुद्धी य। . सोलं विसयाण अरी सोलं मोक्खस्स सोपाणं ॥२०॥
शीलं तपो विशुद्ध दर्शनशुद्धिश्च ज्ञानशद्धिश्च ।
शीलं विषयाणामरिः शोलं मोक्षस्य सोपानं ॥२०॥ जह विसय लुद्धविसदो तह थावरजंगमाण घोराणं । 'सव्वेसि पि विणासदि विसयविसं दारुणं होई ॥२१॥
यथा विषयो लुब्धविषदः तथा स्थावरजङ्गमान् घोराणन् ।
सर्वानपि विनाशयति विषयविषं दारुणं भवति ॥२१॥ वार एक्कम्मि य जम्मे मरिज्ज विसवेयणाहदो जीवो। विसयविसपरिहया णं भमंति संसारकांतारे ॥२२॥
वारं एक जन्म गच्छेत् विषवेदनाहतो जीवः।
विषयविषपरिहता भ्रमन्ति संसारकान्तारे ॥२२॥ सोलं तवो-शील विशुद्ध तप है शील दर्शनकी शुद्धि है, शील ही ज्ञान की शुद्धि है, शील विषयों का शत्रु है और शील मोक्ष की सीढ़ी है।
भावार्थ-जिस जोवके समता भाव रूप शील प्रकट हुआ हो उसोके तप, दर्शन और ज्ञान की शुद्धता प्रकट होती है। वही जीव विषयों को नष्ट कर पाता है और वही मोक्षको प्राप्त हो सकता है ॥२०॥
जह विसय लुब्ध-जिस प्रकार विषय, लोभी मनुष्यको विषके देनेवाले हैं उसी प्रकार भयंकर स्थावर तथा जङ्गम-त्रस जीवोंको विष भी सबको नष्ट करता है परन्तु विषय रूपी विष अत्यन्त दारुण होता है।
भावार्थ-जिस प्रकार हस्ती मीन भ्रमर पतंग तथा हरिण आदि के विषय उन्हें विषकी भाँति नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार स्थावरके विष मोहरा सोमल आदि और जङ्गम अर्थात् साँप बिच्छू आदि भयंकर जीवोंके विष सभी को नष्ट करते हैं इस प्रकार जीवोंको नष्ट करने की अपेक्षा विषय और विषमें समानता है परन्तु विचार करने पर विषय रूपी विष अत्यन्त दारुण होता है। क्योंकि विष से तो जीवका एक भव ही नष्ट होता है और विषय से अनेक भव नष्ट होते हैं ॥२१॥
वारि-विष की वेदना से पीड़ित हुआ जीव एक जन्म में एक ही १. "क्वचिदसादे," इत्यनेन द्वितीयास्थाने षष्ठी। द्वितीयादिविभक्तीनां स्थाने . क्वचित् षष्ठी स्यादिति सूत्रार्थः । २. "अस्टासोमप" इत्येनेन द्वितीयास्थाने
सप्तमी । द्वितीयातृतीययोः स्थाने क्वचित् सप्तमी भवतीति सूदपर्य। (सं०) ।
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