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________________ ७०२ षट्प्राभृते [८. २३-२४गरएसु वेयणाओ तिरिक्खए माणुएस दुक्खाई। देवेसु वि दोहरगं लहंति विसयासता जीवा ॥२३॥ नरकेषु वेदनाः तिरश्चि मानवेष दुःखानि । देवेष्वपि दौर्भाग्यं लभन्ते विषयासक्ता जीवाः ॥२३।।. तुसधम्मतबलेण य जह दव्वं ण हि गराण गच्छेदि। तवसोलमंत कुसली खवंति विसयं विसं व खलं ॥२४॥ ... तुषध्मद्वलेन च यथा द्रव्यं न हि नराणां गच्छति । तपः शीलमन्तः कुशला क्षिपन्ते विषयं विषमिव खलं! ॥२४॥ बार मरणको प्राप्त होता है परन्तु विषय रूपी विष से पीड़ित हुए जीव... संसार रूपी अटवी में निश्चय से भ्रमण करते रहते हैं अर्थात् बार बार जन्म धारण करते हैं। भावार्थ-विषय रूपी विष तथा साधारण विष में अन्तर बतलाते हुए आचार्य लिखते हैं कि अन्य विष तो इस जीवको एक ही बार मारता है परन्तु विषयरूपी विष निरन्तर ही मारता रहता है। विषयी जीव नई नई पर्याय धारण कर संसाररूपी वनमें घूमता ही रहता है। इसलिये हे भव्य ! . इस विषय रूपो विष से अपनी रक्षा कर ॥२२।। __णरएसु-विषयासक्त जीव नरकों में वेदनाओं को, तिर्यञ्च और मनुष्यों में दुःखों को तथा देवों में दौर्भाग्य को प्राप्त होते हैं ॥२३॥ भावार्थ-विषयों में आसक्त हए जीव नरकों में उत्पन्न होकर वहाँ की तीव्र वेदनाओंको प्राप्त होते हैं। तिर्यञ्च और मनुष्य गति सम्बन्धी दुःख सामने ही अनुभवमें आते है और देवों में कदाचित कषाय की मन्दता से उत्पन्न होते हैं तो वहाँ अभियोग्य या किलविष्क जाति के देव होकर निरन्तर दुःख उठाना पड़ता है ॥२३॥ तुसपम्मत-जिस प्रकार तुषों के उड़ा देनेसे मनुष्यों का कोई सार भत द्रव्य नष्ट नहीं होता उसी प्रकार तप और शीलसे युक्त कुशल पुरुष विषय रूपी विषको खल के समान दूर छोड़ देते हैं। भावार्थ-तुषको उड़ा देने वाला सूपा आदि तुषध्मत् कहलाता है उसके बलसे मनुष्य सारभूत द्रव्य को बचाकर तुषको उड़ा देता है-फेंक देता है उसो प्रकार तप और उत्तम शोलके धारक पुरुष ज्ञानोपयोग के द्वारा विषभूत पदार्थों के सार को ग्रहण कर विषयों को खलके समान दूर छोड़ देते हैं । तप और शील से सहित ज्ञानी जोव इन्द्रियों के विषय को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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