SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -५.५० ] भावप्राभृतम् ३५१ एवं तैनिस 'कैस्ताडित उत्पन्नात्रिकक्रोधो दष्टोष्ठो यदूनां स्वतपासश्च विनाशाय भ्रुकुटि चकार कुमारास्तु पुरीं प्रति गमनं चक्रः कैश्चित्तद्दुराचारो विष्णोर्बलस्य लघु निवेदितः । तत्श्रुत्वा द्वारवत्या प्रलयं जिनोक्तं प्राप्तं तदापि मेनाते परिच्छेद रहितो मुनिसमीपं गतौ । अग्निमिव ज्वलन्तं क्रोधेन संक्लिष्टषियं भ्रूभंग - विषमवक्त्रं दनिरीक्ष्येक्षणं क्षीणकण्ठगतप्राणं विभीषणस्वरूपं दहशतुः कृताञ्जलिपुटौ महादरात्प्रणिपत्य याचनां वन्ध्या जानन्तावपि मोहाद्याचितवन्तौ । हे साधो ! चिरं परिरक्षितस्तपोभार ः क्षमामूलः क्रोधाग्निना धक्ष्यते मोक्षसाधनं परिरक्ष्यतां परिरक्ष्यतां । मूढैः प्रमादबहलंदु विचेष्टितं भवतः कृतं तत्क्षम्यतां क्षम्यतां । क्रोधश्चतुर्वं शत्रुः क्रोधः स्वपरनाशकः, अस्मभ्यं प्रसादः कियतां मुने ! इति प्रियवादिनौ तौ पादयोर्लगित्वा प्रार्थितवन्तो तथापि सोऽनिवर्तकः संजातः । समय उनकी दृष्टि आतापन योगमें स्थित द्वीपायन मुनिकी ओर पड़ी। नशाके कारण नेत्रों को घुमाते हुए वे कहने लगे कि यह वही द्वीपायन मुनि है जो द्वारिका को जलावेगा । अब यह दीन हमलोगों के आगेसे कहीं जायगा ? इस प्रकार कहकर सब ओर से ढेले तथा पत्थरोंसे वे उसे तब तक मारते रहे जब तक पृथिवी पर न गिर पड़ा। इस प्रकार निर्दय कुमारों के द्वारा ताडित होनेसे द्वीपायन को अत्यधिक क्रोध उत्पन्न हो गया । ओंठ डसते हुए उसने यादवों और अपने तपके विनाश के लिये भौंह चढ़ाली । कुमार द्वारिका की ओर चले गये । किन्हीं लोगोंने कुमारोंके इस दुराचार को सूचना बलभद्र और कृष्णको शीघ्र ही दी। वह सुनकर उन्होंने उसी समय मान लिया कि जिनेन्द्रदेवने जो द्वारिका का प्रलय कहा था वह आ पहुँचा है । वे उसी समय परिकरसे रहित हो मुनिके समीप गये । उस समय द्वीपायन मुनि क्रोधसे अग्निके समान जल रहा था, उसकी बुद्धि अत्यन्त संक्लेश से युक्त थी, भौहों के भङ्गसे उसका मुख अत्यन्त विषम हो रहा था, उसके नेत्रोंकी ओर देखना कठिन था । उसके प्राण क्षीण होकर कण्ठगत हो रहे थे तथा उसका स्वरूप अत्यन्त भयङ्कर था । ऐसे मुनिको बलभद्र और कृष्णने देखा । देखते हो उन्होंने हाथ जोड़ कर बड़े आदर से शुककर नमस्कार किया और यह जानते हुए भी कि हमारी याचना निष्फल होगी, मोह वश इस प्रकार याचना को । हे साधो ! चिरकाल से १. निर्दयः । २. तदपि क० । ३. भ्रूभङ्ग विषम म० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy