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________________ ३५० षट्प्राभूते [५. ५०निषेधिनी कारयामासतुः ततो मद्यपैर्मद्याङ्गानि पिष्टकिण्वादीनि मद्यानि च कदम्बवने गिरिगह्वरे शिलाभाण्डानि आस्फालितानि । सा मदिरा कदम्बवनकुण्डेषु गता। कर्मविपाकहेतुत्वेनावस्थिता । श्री नेमिनाथः पल्लवदेशे गतः। जिनेन सह भव्यलोक उत्तरापथमुच्चलितः। द्वीपायनस्तु द्वादशं वर्ष भ्रान्त्याऽतीतं मन्वानो जिनादेशो व्यतिक्रान्त इति ध्यात्वा सम्यक्त्वहीनो द्वारवतीमागत्य मिरेनिकटनगरबाह्यमार्गे आतापनयोगे स्थितः । वनक्रीडापरिश्रान्तास्तृष्णया व्याकुलीभूताः कादम्बकुण्डेषु जलमिति ज्ञात्वा शंभ वादयस्तां सुरां पिबन्ति स्म कदम्बवनस्थितां कदम्ब . . कतया स्थितां विसृष्टां कादम्बरीं पीत्वा कुमारा विकारांश्च प्रापुः । सा पुराणापि वारुणी परिपाकवशात् तरुणीवत्तरुणान् वशेऽकरोत् । ते कुमारा असंबद्ध गायन्तो नृत्यन्तश्च स्खलितपादाः प्रमुक्तकुन्तलाः पुष्पकृतावतंसाः कण्ठालम्बितपुष्पमालाः सर्वे पुरं समा गच्छन्तः सूर्यप्रतिमास्थितं द्वीपायनमुनि दृष्ट्वा घूर्णमाननयना इत्यूचुः सोऽयं द्वीपायनो यतियों द्वारवती पक्ष्यति सोऽस्माकमग्रतः क्व यास्यति वराक इति प्रोच्य सर्वतो लोष्टुभिः पाषाणांश्च तावत्प्रजघ्नुर्यावद् भूमी पपात । . साधनों को, मदिरा को तथा पत्थर को कुण्डी आदि वर्तनोंको कदम्ब वनसम्बन्धी पर्वत को एक गुफा में फेंक दिया। वह मदिरा कदम्बवनके कुण्डों में जा पहुंची और कर्मोदय के कारण वहाँ अवस्थित रही आई। श्री नेमिनाथ भगवान् का विहार पल्लव देश में हो रहा था तथा भव्य लोग जिनेन्द्रदेवके साथ उत्तरापथ की ओर चल रहे थे। इधर द्वीपायन मुनिने भ्रान्तिसे बारहवें वर्ष को पूर्ण हुआ मान यह समझ लिया कि अबतो जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा निकल चुको है अतः सम्यक्त्व से हीन द्वीपायन द्वारिका आकर पर्वतके निकट नगर के बाहर मार्ग में आतापन योग धारण कर स्थित हो गया। __ वन क्रीड़ा से थके तथा प्याससे पीड़ित शंभव आदि कुमारों ने कदम्बवनके कुण्डों में 'यह जल है' ऐसा जानकर उस मदिराको पी लिया। कदम्बवन में स्थित तथा इकट्ठी होकर सामूहिक रूपसे स्थित उस छोड़ी हई मदिराको पोकर कुमार विकारको प्राप्त हो गये। यद्यपि वह मदिरा पुरानी पड़ गई थो तथापि कर्मोदयसे उसने तरुणीके समान उन तरुणोंको अपने वशमें कर लिया था । वे सब कुमार नशाके कारण असम्बद्ध गाना गा रहे थे, लड़खड़ाते पैरोंसे नाच रहे थे, उनके बाल बिखरे हुए थे, फूलों के कर्णफूल बनाकर पहने हुए थे और कण्ठ में फूलों की मालाएं लटकाये हुए थे। इस तरह सब मस्ती करते हुए नगर की ओर आ रहे थे। उसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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