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________________ -५.५०] भावप्रामृतम् (अवरोत्ति दव्वसवणो ) अपर इति द्रव्यश्रमणो भावरहितो मुनिजिनवचनप्रतीतिरहितः । (दसणवरणाणचरणपन्भट्ठो ) दर्शनेन जिनसम्यक्त्वेन वरं श्रेष्ठ यज्ञानं चरणं च चारित्रं तेभ्यस्त्रिभ्यापि प्रभ्रष्टः पतितः सम्यग्दृष्टीनां मुनीनामपाङक्तेयः । ( दोवायणुत्ति णामो ) द्वीपायन इति नामा । ( अणंतसंसारिओ जाओ ) अनन्तसंसारिकः अनन्ते संसारे नियुक्तः नियोगवान् कर्मपरवश इत्यर्थः, जातो भवति स्म । द्वीपायनस्य कथा यथा-श्रीनेमिनाथो बलभद्रण पृष्टः स्वामिन् ! इयं द्वारवती पुरी किं कालान्तरे समुद्र निमंक्ष्यति कारणान्तरेण वा विनंक्ष्यति भगवानाह-रोहिणीभ्राता द्वीपायनकुमारस्तव मातुलोऽम्याः पुर्या रुषा दाहको भविष्यति द्वादशे वर्षे मद्यहेतुत्वात् । तत्श्रु त्वा द्वीपायनकुमार इदं जैनवचनमसत्यं विकीर्दीक्षा गृहीत्वा पूर्वदेशं गतः । द्वादशविधिपूरणार्थं तपः कतुमारब्धवान् । जरत्कुमारेण कृष्णमरणमाकर्ण्य बलभद्रादयो नेमिनाथं नमस्कृत्य सर्वेऽपि यादवा द्वारवती विविशुः । ततः कृष्णो बलभद्रश्च पुर्या घोषणां मद्य विशेषार्थ-दूसरा द्रव्य श्रमण द्वीपायन है । भाव रहित अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के वचनों का श्रद्धा से रहित मुनि द्रव्य श्रमण कहलाता है । वह जिन सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र से पतित था अर्थात सम्यग्दृष्टि मुनियों की पंक्ति में बैठने के अयोग्य था और इसी कारण अनन्त संसारी हुआ था। इसको कथा इस प्रकार है . द्वीपायन मुनि की कथा ... बलभद्र ने नेमिनाथ भगवान से पूछा स्वामिन् ! यह द्वारिका नगरी कालका अन्त होनेपर अर्थात् प्रलय काल आने पर समुद्र में निमग्न होगी अथवा किसी दूसरे कारण से नष्ट होगी? भगवान् ने कहा-रोहिणीका भाई द्वोपायन कुमार है जो तुम्हारा मामा होता है वह क्रोध से बारहवें वर्ष में इस नगरोका जलाने वाला होगा और उसका कारण होगा मदिरापान। यह. सुनकर द्वोपायन कुमार जिनेन्द्रदेवके इस वचन को . असत्य करने को इच्छा से दोक्षा लेकर पूर्व देशकी ओर चला गया। बारह वर्षको अवधि पूर्ण करने के लिये उसने तप करना प्रारम्भ किया। नेमिनाथ भगवान् ने यह भी बताया कि जरत्कुमार के द्वारा कृष्ण क मरण होगा । उसे सुनकर बलभद्र आदि सभी यादव नेमिनाथ भगवान् को नमस्कार कर द्वारिका में प्रविष्ट हो गये। ... तदनन्तर कृष्ण और बलभद्रने नगरी में मद्यनिषेध की घोषणा करवाई। उस घोषणा से मद्य-पायी लोगोंने पिष्ट किण्व आदि मदिरा बनानेके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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