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-५.१८]
भावप्राभृतम् (वसिओसि चिरं कालं ) उषितोऽसि स्थितोऽसि चिरं दीर्घकालमनन्तकालमनादिकालं ( अणेयजणणीण मुणिपवर ) गर्भवसतिषु अनेका अनन्ता जनन्यो जाताः, हे मुनिप्रवर ! हे मुनीनामुत्तम ।
पीओसि थणच्छोरं अणंतजम्मंतराइं जणणीणं । अण्णण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं ॥१८॥ पीतोऽसि स्तनक्षीरं अनन्तजन्मान्तराणि जननीनाम् ।
अन्यासामन्यासां महायशः! सागरसलिलादधिकतरम् ॥१८॥ (पीओसि थणच्छीरं ) पीतोऽसि पीतवान् धयितवानसि स्तनक्षीरं अपवित्र वक्षोरुहक्षीरं स्तनदुग्धं । ( अणंतजम्मतराई ) अनन्तजन्मान्तराणि अनन्तभवान्तरेषु । ( जणणीणं ) जननीनां अनन्तमातृणां । ( अण्णण्णाण ) अन्यासामन्यासां । महाजस ) महत् त्रैलोक्यव्यापकं यशो यस्य भवति महायशास्तस्य सम्बोधनं क्रियते हे महायशः । ( सायरसलिलादु अहिययरं ) सागरसलिलादप्यधिकतरं अतिशयेनाधिकतरमनन्तसागरजलसमानं ।
मुनियोंमें उत्तम। वे कहते हैं कि मुनिप्रवर ! तुम्हारा यह मुनि पद तो कक्षयका कारण था पर मात्र द्रव्यलिङ्ग धारण करके तुम संसारमें ही भटकते रहे। पहले विकार आदि में आसक्त होकर हीन देव-पर्यायको प्राप्त किया तदनन्तर वहाँ से च्युत होकर मानुषी के अपवित्र एवं घृणित गर्भवास में तुमने निवास किया है, वह भी एकाध वार नहीं किन्तु अनेक वार । अनादि कालसे यहो करते आ रहे हो। इस बीचमें तुम्हारी अनेक माताएं हो चुकी हैं ।।१७॥
गाथार्थ हे महायश के धारक मुनि ! तूने अनन्त जन्मोंमें अन्य· अन्य माताओंके स्तनका इतना दूध पिया है जो समुद्रके जलसे भी अत्यन्त : अधिक है-अनन्तगुणित है ॥१८॥
विशेषार्थ-हे महाशय ! हे त्रैलोक्य-व्यापक यशके धारक मुनि ! तूने द्रव्यलिङ्ग धारण करके, मनुष्यके अनन्त जन्म धारण किये और उनमें अन्य अन्य माताओंके अपवित्र स्तन के दूधको इतना अधिक पिया कि वह समुद्र के जलसे भी अतिशय अधिक है अर्थात् अनन्त समुद्रों के जलके समान है ॥१८॥
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