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________________ '-५. ४५] भावप्रामतम् ३२१ न्यनुपपन्नता का। पर्वतोक्तयागेन सस्त्रीकः सगरः स्वर्गमवाप । ज्वलन्तं प्रदीप कोऽन्यो दीपो यस्तं प्रकाशयेत् । तेन पर्वतोक्तं यज्ञ स्वर्गसाधनं भयं त्यक्त्वा यूय कुरुध्वं । इति हिंसानृतानन्दबद्धनारकायुमिथ्यापापादपवादाच्चाभीरुर्जगाद । तदा ब्रह्माण्डं स्फुटितमिवाकाशे ध्वनिः संजातः, आकाशः खल्वित्याक्रोशं'चकारेव । किमाक्रोशयदाकाशः अहो नारद ! अहो तापसाः ! पृथिवीपतेर्मुखादीदृशमपूर्व घोरं वचनं संजातमिति । नद्यः प्रतिकूलजलस्रवाः संजाताः । सरांसि सद्यः शुष्काणि । रुधिरवर्षणमनारतं बभूव । सूर्यांशवो मन्दाः संजाताः। सर्वा दिशो मलीमसाः सम्पद्यन्ते स्म । भयविह्वलाः प्राणिनः कम्पं दधुः । तदा भूमिद्विधा भक्ति गता। तस्मिन् महारन्ध्र वसोः सिंहासनं ममज्ज। आकाशे स्थिता देवविद्याधरेशा इत्यूचुः-अहो वसुनरेन्द्र महाबुद्धे ! धर्मविध्वसनं मार्ग मा त्वमीदृशं वादीरित्यघोषयन् । सिंहासने निमग्ने सति पर्वतो वसुश्च पर्वतने सब वृत्तान्त अपनी मातासे कहा । माता पुत्रके साथ वसुसे मिली और उससे बोली बेटा वसु ! पर्वत अविवाहित है, तप धारण करते हुए गुरुने भी इसे तुम्हारे लिये सौंपा था। नारदके साथ तुम्हारे सामने इसका वाद होगा, उसमें यदि इसकी पराजय होगी तो इसका यमके घरमें प्रवेश होगा । ऐसा निश्चय करो। तुम्हारे सिवाय इसका और शरण नहीं है। वसुने कहा-'माता ! में गुरुका सेवक हूँ। गुरुके पुत्र और गुरुकी स्त्रीको समान ही देखना चाहिये। में इस नीतिको जानता हूँ अतः इसकी जीत करूंगा, तुम डरो मत ।' तदनन्तर दूसरे दिन सब लोगोंने उस तरहके अर्थात् अन्तरीक्ष दिखने वाले सिंहासन पर आरूढ़ राजा वसुके दर्शन किये । वहाँ विश्वभू आदिने पूछा कि हे राजन् ! आप से पूर्व भी यहां अहिंसा धर्मकी रक्षा करने में तत्पर रहने वाले हिमगिरि, महागिरि, समगिरि और वसुगिरि नामके चार राजा पहले हो चुके हैं। ये सब हरिवंश में उत्पन्न हुए थे उसी हरिवंश में विश्वावसू महाराज भी हुए थे और उनसे आप उत्पन्न हुए हैं। उस वंशमें अहिंसा धर्मको रक्षा सदासे होती आई है इस विषयमें क्या कहना है । 'आपही सत्यवादी हैं। इस प्रकार की जोरदार घोषणा तोनों लोकोंमें हो रही है । वस्तुमें संदेह उपस्थित होनेपर आप विषके समान, अग्निके समान अथवा तुलाके समान विद्यमान हैं। हे प्रभो! चूंकि विश्वासको उत्पन्न करने वाले आप ही हैं, अतः हम लोगोंका संशय दूर २१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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