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________________ ३२० षट्प्राभूते [५.४५"गुरुवद्गुरुपुत्र गुरुकलत्रं च पश्येत्” इत्यहं नीतिज्ञाऽस्य जयं करिष्यामि । त्वं भषीर्मा । अथान्येास्ते तथाविधं सिंहासनमारूढं वसु ददृशुः । तत्र विश्वभूप्रभृतयः संपप्रच्छुः । हे राजन् ! त्वत्तः पूर्वमपि अहिंसाधर्मरक्षणे तत्परा अत्र चत्वारो राजानो हिमगिरिमहागिरिसमगिरिवसुगिरिनामानो हरिवंशजाः पुरा च संजाताः। तत्रव वंशे विश्वावसुमहाराजः संजातः । ततश्च भवान् संबभूव । तत्राहिंसाधर्मरक्षित्वे किमुच्यते । त्वमेव सत्यवादीति प्रघोषस्त्रिभुवने वर्तते। वस्तुसंदेहे त्वं विषवत् वन्हिवत् तुलावत् वर्तसे । प्रत्ययोत्पादी त्वमेव, तेनास्माकं प्रभो ! संशयं छिद्धि । नारदः खल्वहिंसालक्षणं धर्म पक्षं कक्षीचकार । पर्वतस्तु तद्विपरीतमाचिक्षेप । तत्कथयतु भवानुपाध्यायस्योपदेशमित्यभ्यथितः । गुरुपल्या पुरा प्रार्थित उपाध्यायोपदेशं जानन्नपि राजा महाकालोत्पादितमहामोहो दुःषमकालनिकटवर्तित्वात् विषयसंरक्षणानन्दनामरौद्रध्यानतत्परः पर्वतोक्तं तत्वं वर्तते । प्रत्यक्षे वस्तुजिस प्रकार शस्त्र आदिके द्वारा प्राणीका घात करने वाला पापसे बद्ध होता है उसी प्रकार मन्त्र आदिके द्वारा घात करने वाला पुरुष भी पापसे बद्ध होता है क्योंकि दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है । हे पर्वत ! यह भी तो कहो कि पशु आदि की सृष्टि विधाताके द्वारा प्रकट की जाती है या नवीन रची जाती है ? यदि नवीन रची जाती है तो आकाशके फूल आदि अविद्यमान वस्तु भी क्यों नहीं रची जाती है ? यदि यह कहते हो कि पहले से विद्यमान सृष्टि ही यज्ञके लिये प्रकट की जाती है तो 'सृष्टि की जाती है' इस अर्थको प्रतिपादन करने वाले सभी वचन निरर्थक हो जावेंगे । यदि यह मान लिया जाय कि विद्यमान सृष्टि ही विधाता के द्वारा प्रकट की जाती है तो फिर उसका प्रतिबन्धक क्या है ? क्योंकि दीपकका जलना ही यह बतलाता है कि पहले घटादि पदार्थ अन्धकारसे आच्छादित थे । अर्थात् जिस प्रकार पहले अन्धकारसे आच्छादित घटादि को दीपक प्रकट करता है, उसी प्रकार यहाँ बतलाना चाहिये कि सृष्टि पहले किससे आच्छादित थी? इस दोषसे बचने के लिये यदि यह कहते हो कि सृष्टि किसासे आवृत नहीं थी, अनावृत सृष्टि ही प्रकट की जातो है तो फिर आपको सृष्टिवाद ही स्वीकृत करना चाहिये । इस प्रकार नारदके द्वारा किये हुए प्रस्तावको सुनकर सभामें बैठे हुए सब लोग उसकी स्तुति करने लगे। __ तदनन्तर सभासदोंने कहा कि यदि दोनोंका विवाद वसुके द्वारा समाप्त होता है तो उसीके संमुख चला जाय । यह सुनकर सभी सभा उन नारद और पर्वत के साथ स्वस्तिकावती को चल पड़ो। वहाँ जाकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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