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भावप्राभृतम्
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यतः । अनावृतस्यैव व्यक्तिः क्रियते इति चेतहि सृष्टिवादो भवद्भिः पूर्वं क्रियतां ? इति नारदेन कृतमुपन्यासमाकर्ण्य सर्वेऽपि सभास्थास्तं तुष्टुवुः । अथ सभ्या ऊचुः - द्वयोर्विवादो वसुना चेच्छेद्यते तर्हि स एव अभिगम्यतां । इति श्रुत्वा ताभ्यां नारदपर्वताभ्यां [ समं ] सर्वापि संसत् स्वस्तिकावतीमुच्चचाल | तत्र पर्वतः सर्वं वृत्तान्तं स्वमात्रे निवेदयामास । सा तेन युता वसु ं ददर्श । पुत्र वसो ! पर्वतोऽपरिणीतः । तपोयुजा गुरुणापि तवायमर्पितः । नारदेन सह तव प्रत्यक्षे वादो भविष्यति, तत्र यद्यस्य भंगो भविष्यति तदास्य यमगृहप्रवेशो भविष्यतीति निश्चिनु । अस्य शरणमन्यो न वर्तते । वसुरुवाच । मातः ! गुरुशुश्रूषकोऽहं वर्ते ।
आकाश में स्थित रहता है । यह सुनकर नारद ने कहा- क्या हानि है ? उसीसे पूछ लिया जाय । विचारने योग्य बात तो यह है कि
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यदि हिंसा धर्मका साधन है तो अहिंसा, दान, शोल आदिको पापका साधन होना चाहिये । यदि ऐसा है तो धीवर आदिकी उत्कृष्ट गति हो और सत्य धर्म, तप तथा ब्रह्मचारियों की अधोगति हो । यदि तुम्हारा यह कहना है कि यज्ञ में पशु वधसे धर्म होता है अन्यत्र नहीं, तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि वध यज्ञमें हो चाहे यज्ञके बाहर हो — दोनों स्थानों पर दुःखका कारण है, अतः सदृशता के कारण फल भी समान होना चाहिये । यदि तुम यह कहो कि पशुओंकी सृष्टि विधाता ने यज्ञके लिये की है, तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि फिर अन्य प्रकारसे पशुओं का उपयोग संगत नहीं होता अर्थात् यज्ञ वध के सिवाय खेती आदिके hi उनका उपयोग नहीं होना चाहिये, यह आगम अर्थात् 'यज्ञार्थं पशवः सृष्टा:-' इत्यादि शास्त्र अत्यन्त मूर्ख जनोंकी इच्छा मात्र हैं तथा विद्वानों के लिये निन्दनीय हैं । जो जिसके लिये रचा जाता है उससे अन्य कार्य में उसका उपयोग होनेपर वह सार्थक कैसे हो सकता है ? कफ आदिको शान्त करने वाली औषधि दूसरे रोगमें उपयोगी कैसे हो सकती है ? खरीदना बेचना आदिमें तथा हल, गाड़ी और बोझा ढोना आदिमें महान् दोष होना चाहिये । हे दुर्बल ! तुझे वादी देख सन्मुख आकर हम कहते हैं
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१. ' भवद्भिः क्रियताम्' इत्यत्र 'भवद्भिरूरीक्रियताम्' इति पाठः सुष्ठु प्रतिभाति ऊरी क्रियताम्स्वीक्रियताम् इत्यर्थः ।
२. सभास्तारास्तं म० सभावस्तारा ३० ।
३. तपोमता म० ।
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