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षट्प्राभूते
[ ५.४५
तन्न, अन्यथा विनियोगस्यागच्छमानत्वात् । अयमागमोऽतिमुग्धाभिलाषः विदुषां गर्हितः । यद्यदर्थं सृष्टं ततोऽन्यत्र विनियोगेऽर्थकृत कथं स्यात् । श्लेष्मदिशमनौषधं ततोऽन्यत्र कथमुपयोगि स्यात् । क्रयविक्रयादी हलानोभार 'वाहनादी महादोषः स्यात् २हे दुर्बलं ! त्वां वादिनं दृष्ट्वा सन्मुखमप्यागत्य ब्रूमः । यथा शस्त्रादिभिः प्राणिघाती पापेन बध्यते तथा मंत्रादिनापि घातकृत्पापेन बध्यते एवाविशेषत्वात् । हंहो पर्वत ! पश्वादिलक्षणा सृष्टिर्व्यज्यतेऽथवा क्रियते ? चेत्क्रियते तर्हि वपुष्पादिकमप्यविद्यमानं कथं न क्रियते । अथ विद्यमानैव सृष्टिर्यज्ञार्थं व्यज्यते तर्हि सर्ववचनं करणप्रतिपादकमनर्थकं स्वात् " प्रदीपज्वलनमेव घटादेः पूर्वमन्धकारप्ररूपकं
शास्त्र क्या नारदने नहीं सुना है ? मेरे तथा इसके गुरु मेरे पिता ही थे । यह नारद कोई दूसरा नहीं है । उस समय भी यह मुझपर समत्सर था अर्थात् मुझसे ईर्ष्या रखता था फिर अब तो कहना ही क्या है ? 'मेरे गुरुका धर्म भाई स्थविर नामका विद्वान् था जो कि जगत् प्रसिद्ध था उसने भी यज्ञमें मृत्यु प्राप्त करना ही श्रुतिका रहस्य बतलाया था तथा मैंने भी साक्षात् प्रकट किया है अर्थात् लोगों को स्पष्ट दिखलाया है कि यज्ञ में मरे हुए प्राणी स्वर्गं गये हैं । यदि तुम्हें विश्वास नहीं है तो समस्त वेद रूपी समुद्र के पार - गामी राजा वसुसे पूछ लो जो सत्यके कारण
१. वाहनादो भ० ।
२. दुर्बलं त्वां म० ।
३. सन्मुखमागस्य म० ।
४. पूर्व वचनं म० ।
५. इतः पूर्व 'अथाभिव्यज्यते तस्य वाच्यं प्राक् प्रतिबन्धकम्' इति भावनिरूपकेण गद्यांशेन भवितव्यं, किन्तुपलब्ध- प्रतिषु न दृश्यते सः ।
६. इस गद्यका मूल गुणभद्राचार्य के उत्तर पुराणके निम्न श्लोक हैं 'सश्रुतो मद्गुरोर्धर्म - भ्राता जगति विश्रुतः । स्थविरस्तेन च श्रौतं रहस्यं प्रतिपादितम् ।।३९८।। यागमृत्युफलं साक्षान्मयापि प्रकटीकृतम् । न चे ते प्रत्ययो विश्ववेदाम्भोनिधिपारगम् ।। ३९९॥ पर्व ६७ । इन श्लोकोंमें बताया गया है कि मेरे गुरुके धर्मभाई जगत् - प्रसिद्ध स्थविर नामके विद्वान् थे उन्होंने 'अजैर्यष्टव्यम्' इस श्रुतिका रहस्य मुझे बतलाया था अर्थात् बकरोंसे यज्ञ करना चाहिये यह श्रुतिका गूढ अर्थं मुझे बतलाया था। तथा मैंने भी यज्ञमें मृत्युका क्या फल होता है उसे साक्षात् प्रकट करके दिखाया है । परन्तु यहाँ गद्य में पदविन्यास कुछ अस्त-व्यस्त हो गया है
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