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________________ -५. ४५] भावप्राभृतम् ३२३ यागश्रद्धया दिवमवापाव । यूयं नारदस्य वचनं मा मानयतेति प्रोच्य अन्तर्दधी कालासुरः । अथ शोकाश्चर्ययुक्तेन जनेन वसुः स्वगं गतो, न हि न हि नरक गत इति विसंवदमानेन सह विश्वभूः प्रयागं गत्वा राजसूयविधि विदधे । महापुराधिपप्रमुखा लोकस्य मूढत्वं निन्दन्तः परमब्रह्मनिर्दिष्टमार्गे मनाक् स्थितास्तस्थुः । नारदेन धर्ममर्यादा रक्षितेति तं प्रशस्य गिरितटनाम्नी पुरं तस्य ददुः । तापसास्तु दयाधर्मनाशस्य कारणं कलिकालं कलयन्ती यथास्थिति विधुराशया जग्मुः । अथान्येधुनारदो दिनकरदेवं विद्याधरं निजमभीष्टं प्रत्यवाच-पर्वतस्य विरुद्धाचरणं त्वया निवार्यतामिति । सोऽपि तथा करिष्यामीति नागान्तं गत्वा कथन मत करो। सिंहासन के धंस जाने पर पर्वत और वसु म्लान-मुख हो गये। उन्हें वैसा देख महाकालके किंकर तापसोंका आकार रख कर अर्थात् तापसोंके वेषमें आकर कहने लगे-हे पर्वत ! हे वसु ! तुम दोनों भय मत करो। इस प्रकार कह कर उन्होंने वसुके सिंहासन को ऊपर उठा हुआ दिखलाया । उस सिंहासन पर बैठा हुआ वसु कह रहा था'मैं तत्वका जानने वाला कैसे भयभीत हो सकता हूँ। मैं पर्वत के वचनोंको सत्य जानता है' इस प्रकार कहता हुआ वसु कण्ठ पर्यन्त पृथिवीमें धंस गया। यह देख साधुओंने कहा-इस असत्य कथन से वसु राजाको यह दशा हुई है । हे राजन् ! अब भी मिथ्यामार्ग छोड़ दो "इस प्रकार यद्यपि साधुओंने उससे प्रार्थना की थी तथापि वह मुख यज्ञको ही सन्मार्ग कहला गया। कुपित पृथिवी ने उसे सर्वाङ्ग निगल लिया तथा मर कर वह सातवें नरक गया। उस समय कालासुरने लोगों को विश्वास दिलाने के लिये आकाशमें स्थित सगर और वसुके दो दिव्य रूप दिखलाये । वे कह रहे थे कि हम दोनों यज्ञको श्रद्धासे स्वर्गको प्राप्त हुए हैं, तुम सब नारदका वचन मत मानो"इस प्रकार कह कर कालासुर अन्तहित हो गया। तदनन्तर शोक और आश्चर्य में निमग्न लोगोंमें कोई तो कहता था कि वसु स्वर्ग गया है और कोई कहता था कि नहीं नहीं नरक गया है । इस प्रकार विवाद करते हुए लोगोंके साथ विश्वभूने प्रयाग जाकर राजसय यज्ञको विधि की। महापूर के राजा आदि जो प्रमुख पुरुष थे वे लोगोंकी मूढ़ता को निन्दा करते हुए परमब्रह्म जिनेन्द्र देवके द्वारा निर्दिष्ट मार्गमें ही स्थित रहे। 'नारद ने धर्ममर्यादा की रक्षा की है' इस तरह उसकी प्रशंसा कर उसके लिये गिरितट नामको नगरी दी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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