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षट्प्राभूते
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निजविद्यया धारपन्नगान हूय तत्प्रपंचं निवेदयामास । धारपन्नागास्तु संग्रामे कालासुरं भंक्त्वा यागविघ्नं चक्रुः । विश्वभूपर्वतौ तद् दृष्ट्वा शरणान्वेषणौ यावेदासतां तावत्महाकालमग्रतः स्थितं ददृशतुः तदग्रे तं वृत्तान्तं निवेदयाञ्चक्रतुः । कालासुर उवाच - अस्मद्वेषिणो नागास्तैरयमुपद्रवो विहितः । विद्यानुप्रवादोक्ता नागविद्यास्तासां विजृंभणं जिनबिम्बानामुपरि न भवति ततः सुरूपान् जिनाकारान् चतुर्षु दिक्षु निवेश्य पूजयित्वा च यज्ञविधि युवां कुरुतमिति । तमुपायं श्रुत्वा तौ तथा चक्रतुः । पुनविद्याधराधिपो यागविघ्नं कर्तुं मागताः । जिनबिम्बोनि दृष्ट्वा नारदाय कथयति स्म यन्मेविद्या अत्र न क्रामन्तीति स्वस्थानं जगाम । तदनन्तरं यज्ञो निर्विघ्नो बभूव । तदनु विश्वभूः पर्वतश्च सप्तमं नरकं गतौ । दीर्घकालं महादुःखमनुबभूवतुः । अथ महाकालोऽभिप्रेतं साधयित्वा निजरूप
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तापस लोग कलिकाल को दयाधर्मके नाशका कारण समझते हुए दुःखितहृदयसे यथा-स्थान चले गये ।
तदनन्तर किसी दिन नारदने दिनकर देव नामक विद्याधरसे अपने मनकी बात कही - आपके द्वारा पर्वतके विरुद्ध आचरणका निवारण किया जाना चाहिये । दिनकर देवने 'वैसा करूंगा' इस तरह अपनी स्वीकृति दे दी। उसने नाग जातिके देवके पास जाकर अपनी विद्या के द्वारा धारपन्नग नामक देवोंको बुलाया और पर्वतका यह सब प्रपञ्च कह सुनाया । धारपन्नग देवोंने संग्राम में कालासुरकों पराजित करके यज्ञ में विघ्न उत्पन्न कर दिया । विश्वभू और पर्वत उस विघ्नको देखकर जब शरण की खोज करते हैं तब सामने खड़े हुए महाकाल को देखते हैं । उन्होंने महाकाल के आगे सब वृत्तान्त कहा। कालासुर बोला - नाग देव हमारे द्वेषी हैं उन्होंने यह उपद्रव किया है। विद्यानुप्रवाद में नाग विद्या की गई हैं उनका प्रभाव जिन प्रतिमाओं पर नहीं होता इसलिये चारों दिशाओं में सुन्दर जिन प्रतिमाएं रखकर पूजा करो, इस प्रकार यज्ञ की विधिको तुम दोनों पूरा करो। उस उपाय को सुनकर विश्वभू और पर्वत ने वैसा हो किया । विद्याधरों का राजा फिर से यज्ञ में विघ्न करने के लिये आया परन्तु जिन प्रतिमाओं को देखकर नारद से बोला कि मेरी विद्याएं यहाँ नहीं चलती हैं। ऐसा कहकर वह अपने स्थान पर चला गया तदनन्तर यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया । पश्चात् विश्वभू और पर्वत सप्तम नरक गये तथा दीर्घ काल तक महा दुःख भोगते रहे ।
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