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________________ - ३१ के दर्शन होते हैं | अपने प्रकृत अभिप्रायको पुष्ट करनेके लिए जिन अनेक ग्रंथोंके इस टीकामें उद्धरण दिये गये हैं उनमें प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा के भी उद्धरण हैं । कुछ तो ऐसे हैं जिनके मूलग्रन्थ या सन्दर्भ भी आज उपलब्ध नहीं होते । समन्तभद्राचार्यकी रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रभाचन्द्रीय संस्कृत टीकाका अनुसरण करते हुए इस टीकामें भी अनेक कथायें दी हैं जिससे सामान्य पाठक भी रुचिपूर्वक इसका अध्ययन कर लेता है । इस तरह अनेक दृष्टियोंसे प्रस्तुत टीका महत्त्वपूर्ण है । - श्रुतसागरसूरि द्वारा प्रस्तुत इस ग्रन्थके प्रत्येक पाहुडके और इनके अन्यान्य ग्रंथोंके आदि, मध्य और अन्तकी पुष्पिकाओं, प्रशस्तियों आदिमें आचार्यों आदिकी नामावली तथा अन्यान्य सूचनायें भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और प्रशंसनीय हैं, जिनके द्वारा जैन इतिहासकी बिखरी कड़ियों को जोड़नेका कार्य किया जा सकता है । Jain Education International इस तरह बहुमुखी व्यक्तित्वके धनी श्रुतसागरसूरि द्वारा रचित विविध और विशाल वाङ्मय से स्पष्ट है कि वे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं तथा धर्मशास्त्र, दर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि विषयोंके प्रतिभाशाली विद्वान् थे। इससे अपने लिए विभूषित विशेषणों और उपाधियों की चरितार्थता भी पूर्ण सिद्ध हो जाती है । उनके लिए प्रयुक्त "कलिकाल - गौतम " विशेषणसे यह प्रतीत होता है कि जिस प्रकार गौतम गणधरने श्रुतका बीजरूपमें प्रचार और प्रसार किया, उसी प्रकार परमागमप्रवीण, तार्किक शिरोमणि श्रुतसागरने अनेक वादियों को पराजित करके जैनधर्मकी अपूर्व प्रभावना भी की । भाद्रपद शुक्ला पंचमी पयुषण पर्व शुभारम्भ वीरनिर्वाण संवत् २५१६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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