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________________ ५०९ -५. १२०] भावप्राभृतम् ग्रहीष्यामि, कपूरकस्तूरीचन्दनागुरुपुष्पादिपरिमलपानं विघास्यामि, स्तनजघनवदनविलोचनविलोकनं प्रणेष्यामि, वीणावंशस्वरमण्डलनवयौवनकामिनीगीतमिरं रखें श्रोष्यामीति पंचेन्द्रियविषयमाकांक्षन् व्याकुलोऽयं जीवो भवति । तत्सर्वं पूर्वमनन्तशोऽनुभूतमेव संसारे, न किमपि दुर्लभं वर्तते अन्यत्रात्मस्वरूपसमुत्पन्नसुखामृतपानात् । तथा चोक्तं अदृष्टं कि किमस्पृष्टं किमनाघ्रातमश्रुतं । किमनास्वादितं येन पुनर्नवमिवेक्ष्यते ॥१॥ तथा चोक्त अङ्ग यद्यपि योषितां प्रविलसत्तारुण्यलावण्यवद् भूषावत्तदपि प्रमोदजनक मूढात्मनां नो सताम् । 'उच्छूनहुभिः शवरतितरां कीर्णश्मशानस्थल लब्या तुष्यति कृष्णकाकनिकरो नो राजहंसब्रजः ॥ १ ॥ बांसुरी के स्वर तथा नव यौवन से युक्त स्त्रियोंके गीत मिश्रित शब्दोंको सुनने की भावना रखते हैं वे निरन्तर व्याकुल रहते हैं। पञ्चेन्द्रियों के ... ये सब विषय इस जीवने संसार में पहले अनन्त बार भोगे हैं, इन विषयों में कुछ भी दुर्लभ नहीं है यदि दुर्लभ है तो आत्मस्वरूप से समुत्पन्न सुख . . रूपी अमृत का पान करना ही दुर्लभ है । जैसा कि कहा भी है अदृष्टं-इस संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसे इस जीवने पहले न देखा हो, न छुआ हो, न सूघा हो, न सुना हो और न खाया हो जिससे नवीनके समान दिखाई दे । ... ऐसा ही और भी कहा है... अङ्ग-यौवन और सौन्दर्य से युक्त स्त्रियोंका अलंकृत शरीर यद्यपि मूर्ख मनुष्यों के लिये आनन्द उत्पन्न करने वाला है तथापि सत्पुरुषों के लिये नहीं। क्योंकि सूजकर फूले हुए बहुत से मुर्दोसे अत्यन्त व्याप्त श्मशान को पाकर काले कौओं का समूह ही संतुष्ट होता है, राजहंसोंका समूह नहीं। ... उच्छनः म०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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