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५१० षट्प्राभृते
[५. १२०तथा च
समसुखशीलितमनसामशनमपि द्वेषमेति किमु कामाः।
स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्ग! पुनरङ्गमगाराः ॥१॥ इत्यमृतचंद्रः । तथा च शुभचंद्रभगवान्
वरमालिङ्गिता क्रुद्धा चलल्लोलात्र सपिणी ।
न पुनः कौतुकेनापि नारी नरकपद्धतिः ॥ १॥ तथा च शुभचंद्रः
मालतीव मृदून्यासां विद्धि चाङ्गानि योषितां । दारयिष्यन्ति मर्माणि विपाके ज्ञास्यसि स्वयं ॥ १ ॥ काकः कृमिकुलाकीर्णे करके कुरुते रतिम् ।
यथा तद्वद्वराकोऽयं कामी स्त्रीगुह्यमन्थने ॥२॥ तथा च सोमदेवस्वामी चूर्णिगयेन वैराग्यभावनामाहयुवजनमृगाणां बन्धायानाय इव वनितासु कुन्तलकलापः । पुनर्भवमहीरुहारोहऔर भी कहा हैसमसुख-जिनका मन समता सुखसे सम्पन्न है उन्हें भोजन भी द्वेषको प्राप्त होता है तब काम भोगोंकी बात ही क्या है ? मछलियों के लिये जब स्थल भी जलाता है तब अङ्गारों की क्या बात है ?
यह अमृतचन्द्र स्वामी का वचन है। इसी प्रकार शुभचन्द्र भगवान् ने भी कहा है
वरमालिङ्गिता-क्रुद्ध एवं चञ्चल नागिन का आलिङ्गन कर लेना अच्छा परन्तु कौतुक से भी स्त्रीका आलिङ्गन करना अच्छा नहीं है क्योंकि वह नरक का मार्ग है।
और भी शुभचन्द्र भगवान् ने कहा है
मालतीव-इन स्त्रियों के शरीर को तू मालती के समान कोमल मानता है सो भले ही मानता रह परन्तु ये विपाक काल में तेरे मर्म को विदीर्घ कर देंगे, यह तू स्वयं जान जायगा।
काक-जिस प्रकार कौआ कीड़ों के समूह से व्याप्त नर पञ्जर में प्रीति करता है उसी प्रकार यह बेचारा कामी मनुष्य स्त्रीके गुह्य भागके मन्थन में प्रीति करता है।
इसी प्रकार सोमदेव स्वामीने चणि गद्य द्वारा वैराग्य भावना का वर्णन किया है
युवजन-स्त्रियों के शरीर में जो केशोंका समूह है वह तरुण मनुष्य
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