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________________ ५०८ षट्प्राभूते [ ५.१२० नन्दः १, अनृतानन्दः २, स्तेयानन्दः ३, संरक्षणानन्दश्चेति ४ । (रुहट्ट झाइयाई) रौद्रा द्वे ध्याने ध्यातानि ( ध्याते ) ( इमेण जीवेण चिरकालं ) इमेन प्रत्यक्षी - भूतेन जीवेनात्मना चिरकाल अनादिकालं । धर्म्यं शुक्लं च ध्यानद्वयं न ध्यातमिति भावार्थ: । जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिति । छिदंति भावसवणा झाणकुठारेहि भवरुक्त्वं ॥ १२० ॥ येपि द्रव्यश्रवणा इन्द्रियसुखाकुला न छिन्दन्ति । छिन्दन्ति भावश्रवणा ध्यान कुठारेण भववृक्षम् ॥१२०॥ (जे के वि दव्वसवणा) ये केऽपि द्रव्यश्रवणाः शरीरमात्रेण दिगम्बरा अन्तजिनसम्यक्त्वशून्याः । ( इंदियसुहआउला णछिदति) इन्द्रियाणां स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्रलक्षणानां विषयाणां सुखेषु आकुलाः । कदा उर्वोरुपरि विवक्षितवनितायाः पादौ विन्यस्य स्तनकनककलशोपरि करपल्लवी विधृत्य सुखचुम्बनमधुरपानमहं करिष्यामीति स्पशनेन्द्रियसुखलम्पटाः धृतपानपक्वान्नव्यञ्जनशाल्यन्नादिस्वादमहं आत्तंध्यान चार प्रकारका है - १ इष्ट वियोग, २ अनिष्ट संयोग, ३ पीडा चिन्तन ( वेदना जन्य ) और ४ निदान । रौद्रध्यान के भी चार भेद हैं- १ हिंसानन्द, २ मृषानन्द, ३ चोर्यानन्द और ४ संरक्षणानन्द (परिग्रहानन्द) । इन सबके अर्थं नामसे स्पष्ट हैं तथा पहले इनका विवेचन भी चुका है ॥ ११९ ॥ गाथार्थ - जो कोई द्रव्य श्रमण हैं अर्थात् शरीर मात्र से दिगम्बर हैं के तथा इन्द्रियसम्बन्धी सुखों से आकुल रहते हैं वे ध्यान रूपी कुठार द्वारा संसार रूपी वृक्षको नहीं छेदते हैं। इसके विपरीत जो भाव श्रमण हैं तथा इन्द्रिय-सम्बन्धी सुखों से निराकुल हैं वे ध्यानरूपी कुठार से संसार रूपी वृक्षको छेदते हैं ॥१२०॥ विशेषार्थ - जो मुनि अन्तरङ्ग में जिनसम्यक्त्व से शून्य हैं तथा स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों के विषय - सम्बन्धी सुखोंकी आकुलता में निमग्न रहते हैं । मुनि होनेपर भी पूर्वं संस्कार वश स्त्रियों के आलिङ्गनादि की इच्छा रखते हैं, घृत, पेय पदार्थ, पक्वान्न, अथवा धान आदि अनाज के स्वाद की अभिलाषा रखते हैं, कपूर, कस्तूरी, चन्दन, अगुरु तथा फूल आदि की सुगन्धि के सेवन की इच्छा रखते हैं, स्त्रियोंके सुन्दर अङ्गोपाङ्गों को देखने की अभिलाषा रखते हैं और वीणा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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