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________________ - १. १२ ] दर्शनप्राभृतम् २३ ( जे दंसणेसु भठ्ठा) ये पुरुषा दर्शनेषु भ्रष्टा निसगंजाधिगमजलक्षणाद् द्विविधात् सम्यग्दर्शनात्, औपशमिक - वेदक - क्षायिकलक्षणात् त्रिविधात्सम्यक्त्वरत्नास्प्रच्युताः । विशेषार्थ -- उत्पत्ति की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं- निसगंज और अधिगमज । पूर्वभव के संस्कार के कारण जो सम्यग्दर्शन स्वयं हो जाता है उसे निसगंज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जो पर के उपदेश से होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । अन्तरङ्ग कारण की प्रधानता से सम्यग्दर्शन के तीन भेद हैं१. औपशमिक, २. वेदक ( क्षायोपशमिक ) और ३. क्षायिक । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धो क्रोध - मान-मायालोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है उसे औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । यदि यह सम्यग्दर्शन अनादि मिथ्यादृष्टि के होता है तो मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध - मान-माया-लोभ इन पाँच प्रकृतियों के ही उपशम से होता है, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता नहीं रहती और सत्ता न रहने का कारण यह है कि दर्शनमोहकी मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियों में से केवल मिथ्यात्व प्रकृति का ही बन्ध होता है, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का नहीं । सम्यग्दर्शन के हो जाने पर उसके प्रभाव से मिथ्यात्व प्रकृति के तीन खण्ड होते हैं - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति । सादि मिथ्यादृष्टि जीव के ही सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता रहती है, अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के नहीं । सादि मिथ्यादृष्टि जीव के भी मिथ्यादृष्टि अवस्था में अधिक काल तक रहने पर संक्रमण आदि के हो जाने से सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति की सत्ता समाप्त हो जाती है, अतः सादि मिध्यादृष्टि जीव के पाँच या सात प्रकृतियों के उपशम से सम्यग्दर्शन होता है । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध - मान-मायालोभ इन छह सर्वघाती प्रकृतियों के वर्तमान काल में उदय आनेवाले निषेकों का उदयाभावी क्षय तथा उन्हीं के आगामी काल में उदय आनेवाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम और सम्यक्त्व प्रकृति नामक देशधाति प्रकृति का उदय होने पर जो तस्त्वश्रद्धान होता है उसे क्षायोप• शमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्ययस्व प्रकृति के उदय का वेदन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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