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षट्प्राभृते
[ १.१२ -
सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति । निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते । उक्तं
च ढाढसीगाथासु
पिच्छे ण हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंबरये ।
अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि शायव्वो । तथा च सितपटमतम् —
सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य ।
समभावभावियप्पा लहेय मोक्खं ण संदेहो ॥
जैमिनि - कपिल-कणचर - चार्वाक - शाक्य - मतानि तु प्रमेयक मलमार्तण्डादिशास्त्रात् ज्ञातव्यानि ॥११॥
जे दंसणेसु भट्ठा पाए ण पडंति दंसणधराणं ।
ते होंति लल्ल - मूआ बोही पुण बुल्लहा तेसि ॥ १२॥
ये दर्शनेषु भ्रष्टाः पादे न पतन्ति दर्शनधराणाम् । ते भवन्ति लल्लमूका बोधिः पुनदुल्लभा तेषाम् ||१२||
हैं, स्त्रियों को उसी भव में मोक्ष होता है, केवलो भगवान् कवलाहार करते हैं तथा अन्य मत में परिग्रही मनुष्यों को मोक्ष होता है, ऐसा कहते हैं । निष्पिच्छकों की आलोचना करते हुए कहा है कि निष्पिच्छिक लोग मयूरपिच्छ आदि को नहीं मानते। जैसा कि ढाढसो गाथाओं में कहा गया है
पिच्छे - हाथ में लिये हुए मयूरपिच्छ अथवा सुरा गायके बालों में सम्यक्त्व नहीं है । आत्मा ही जीव को तार सकता है, इसलिये आत्मा का ध्यान करना चाहिये ||
सेयंबरो - श्वेताम्बर हो चाहे दिगम्बर, बुद्ध हो चाहे अन्य धर्माव - लम्बी, जिसकी आत्मा समभाव - माध्यस्थ्य भाव — से विभूषित है वह मोक्ष को प्राप्त होता है, इसमें संदेह नहीं है ।
जैमिनि, सांख्य, कणाद, चार्वाक और बौद्धों के मत प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि शास्त्रों से जानना चाहिये ॥ ११ ॥
गाथार्थ - जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट होकर सम्यग्दृष्टियों के चरणों में नहीं पड़ते हैं— उन्हें नमस्कार नहीं करते हैं--वे अव्यक्तभाषो अथवा गूंगे होते हैं तथा उन्हें रत्नत्रय की प्राप्ति दुर्लभ रहतो है ॥ १२॥
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