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________________ - १. ११ ] दर्शनप्राभृतम् 'इत्थीणं पुण दिक्खा खुल्लय लोयस्स वीरचरियत्तं । कक्कसकेसग्गहणं छटुं च गुणव्वदं नाम ॥ श्वेतवाससः सर्वत्र भोजनं गृह णन्ति प्रासुकम्, मांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीति वर्णलोपः कृतः । तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव पापिष्ठाः देवपूजादिकं किल पापकर्मेदमिति कथयन्ति मण्डलवत्सर्वत्र भाण्ड प्रक्षालनोदकं पिबन्ति । इत्यादिबहुदोषवन्त: । ( द्राविडा : ) सावद्यं प्रासुकं च न मन्यन्ते, उद्भभोजनं निराकुर्वन्ति । यापनीयास्तु वेसरा गर्दभा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पं च वाचयन्ति; स्त्रीणां तद्भवे मोक्षम्, केवलिजिनानां कवलाहारम्, परशासने , का उत्तर देते हुए उन्होंने 'गोपुच्छिक' - गोपुच्छिक, श्वेताम्बर, द्राविड, यापनीयक और निष्पिच्छ; इन पांच को जैनाभास कहा है । ये जैनाभास आहारदान आदि के भी योग्य नहीं हैं, फिर मोक्ष के योग्य कैसे हो सकते हैं ? गोपुच्छिकों के मत का दिग्दर्शन कराते हुए उन्होंने निम्न गाथा उद्धृत की है— इत्थीणं - स्त्रियों को दीक्षा दी जाती है, क्षुल्लक लोग भी वीरचर्या करते हैं, कड़े केशों की ग्रहण किया जाता है, और छठवाँ गुणव्रत होता है ॥ २१ श्वेताम्बरों की समीक्षा करते हुए कहा है कि श्वेताम्बर सब जगह प्राक भोजन ग्रहण करते हैं । 'मांसभक्षियों के घर में भी भोजन करने 1.में. दोष नहीं है' ऐसा कह कर श्वेताम्बरों ने वर्णव्यवस्था का लोप किया है। उन्हीं श्वेताम्बरों में श्वेताम्बराभास उत्पन्न हुए हैं । वे अत्यन्त पापी हैं। वे देवपूजा आदि पापकार्य हैं, ऐसा कहते हैं तथा श्वान के समान सर्वत्र सब घरों में बर्तन धोने का पानी पीते हैं, इत्यादि अनेक दोषों से युक्त हैं। द्राविड़ों की समीक्षा में उन्होंने लिखा है कि वे सचित्त और अचित्त के भेद को नहीं मानते हैं तथा खड़े होकर भोजन करने का निषेध करते हैं। यापनीयों की समीक्षा में लिखा है कि यापनीय खच्चरों के समान दोनों को मानते हैं । वे रत्नत्रय की पूजा करते हैं, कल्प का वाचन करते [१. दर्शनसारे । २. बेसरा इवोभयं म० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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