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षट्शाभूते [५.४५महुपिंगो गाम मुणी देहाहाराविचत्तवावारो। सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तण भवियणुय ॥४५॥
मधुपिंगो नाम मुनिः देहाहारादित्यक्तव्यापारः।
श्रमणत्वं न प्राप्तः निदानमात्रेण भव्यनुत ॥ ४९ ॥ ( मुहुपिंगो णाम मुणी ) मधुपिंगो नाम मुनिः। ( देहाहारादिचत्तवावारो) शरीराहारादित्यक्तव्यापारः। ( सवणत्तणं ण पत्तो) श्रमणत्वं दिगम्बरत्वं क प्राप्तः द्रव्यलिंगी बभूवेत्यर्थः। (णियाणमित्तेण भवियणुय ) निदानमात्रेण सगरं सकुटुम्ब क्षय नेष्यामीति निदानमात्रेणेति हे भविकनुत ! भव्यजीवस्तुतमुने ! इयं कथा महापुराणादिषु विश्रुता वर्तते । तथा हि । अथेह भरतक्षेत्रे चारणयुगलनगरे राजा सुयोधनः, राज्ञी अतिथिः, सुता सुलसा । तस्याः स्वयंवरे सर्वत्र दूता गताः। सर्वे नृपा चारणयुगले पुरे मिलिताः। अयोध्यापतिस्तत्र सगर आगन्तुमुद्यमं चकार । पश्चात्स्नाने सति तैलोपलेपिना सगरेण राज्ञा पलितं केशं
____ गाथार्थ हे भव्य-नुत ! हे भव्य जीवोंके द्वारा स्तुत मुनिराज ! देखो, मधुपिङ्ग नामक मुनिने यद्यपि शरीर तथा आहार आदि समस्त व्यापारका परित्याग कर दिया था तथापि वे निदान मात्रके कारण श्रमणपनेको-भावसे मुनि अवस्था को प्राप्त नहीं हुए थे।
विशेषार्थ-मधुपिङ्ग नामक मुनिने दीक्षा धारण कर शरीर तथा आहार आदि व्यापारका परित्याग कर दिया था फिर भी वे इस निदानसे कि 'मैं सगरको सकुटुम्ब नष्ट कर दूंगा' भाव-मुनि अवस्थाको प्राप्त नहीं हुए अर्थात् द्रव्यलिङ्गो बने रहे। हे मुनि ! तू भव्य जीवोंके द्वारा स्तुत हो रहा है अर्थात् भव्य जीव तेरी स्तुति करते हैं सो इतने मात्र से तू अपने आपको कृत-कृत्य मत समझ, भाव शुद्धिकी ओर लक्ष्य दे यह कथा महापुराण आदिमें प्रसिद्ध है जो कि इस प्रकार है
___ मधुपिङ्ग मुनिको कथा अथानन्तर इसी भरत क्षेत्रके चारण युगल नगरमें एक राजा सुयो. धन रहता था। उसकी स्त्रीका नाम अतिथि था। उन दोनोंकी सुलसा नामकी पुत्री थी। सुलसाका स्वयंवर निश्चित हुआ, अतः सब ओर दूत भेजे गये। सब राजा चारण-युगल नगरमें एकत्रित हुए । अयाध्याके राजा सगरने भी वहां जानेका उद्यम किया। पीछे स्नान कर जब सगर राजा तेल लगा रहा था तब शिरमें सफेद बाल देखकर वह यहाँ
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