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चारित्रप्राभृतम् जवीतरागस्य सम्बन्धिनी श्रद्धा रुद्रादिश्रद्धान-रहितं जिनसम्यक्त्वमुच्यते । रुद्रादिसम्यक्त्वं किम् ? तदुक्तं
अग्निवत्सर्वभक्ष्योऽपि भवभक्तिपरायणः ।
भुक्ति जीवन्नवाप्नोति मुक्ति तु लभते मृतः ॥ भवभक्ति-परायणो रुद्रभक्तिपरायणः । ( सुमुक्खठाणाय ) सुमोक्षस्थानाय तीर्थकरपरमदेवो भूत्वा सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षस्थानं प्राप्नोति सुमोक्षस्थानं तस्मै सुमोक्षस्थानाय परमनिर्वाण-प्राप्त्यर्थमित्यर्थः। ( जं चरइ ) यच्चरति यत्प्रतिपाल यतिः । ( णाणजुत्तं ) ज्ञानयुक्तं सम्यक्त्वं ज्ञान-सहितं सम्यक्त्वं । अथवा क्रियाविशेषणमिदं । तेनायमर्थः ज्ञानयुक्तं यथा भवत्येवं चरति । ( पढमं सम्मत्त-चरणचारित्तं ) द्वयोर्दर्शनाचारचारित्राचारयोर्मध्ये सम्यक्त्वाचारचारित्रं पढमं प्रथम भवति ॥ ८॥
सम्मतचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा। णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ॥९॥
यह निर्मल सम्यग्दर्शन ही जिन-सम्यक्त्व कहलाता है। जिन-सम्यक्त्व में जगत्पति-श्रीमान्-भगवान्-अरहन्त-सर्वज्ञ वीतराग देव की ही श्रद्धा रहती है। रुद्र आदि देवोंकी श्रद्धा नहीं रहती। जिसमें रुद्र आदि देवोंको श्रद्धा रहती है वह रुद्रादि-सम्यक्त्व कहलाता है। रुद्र-सम्यक्त्वका धारक जीव ऐसा मानता है- अग्निवत्-भव अर्थात् रुद्रकी भक्तिमें तत्पर रहने वाला मनुष्य अग्निके समान सर्वभक्षी होने पर भी जीवित रहता हुआ सब प्रकारके भोगोंको प्राप्त होता है और मरने पर मुक्ति को प्राप्त होता है । जिनसम्यक्त्वका धारक पुरुष तीर्थंकर परमदेव होकर समस्त कर्मोंके क्षय रूप मोक्ष स्थानको प्राप्त होता है। सम्यक्त्वके साथ ज्ञान अवश्य होता है । उस ज्ञान सहित जिनसम्यक्त्व का जो आचरण होता है वह दर्शनाचार और चारित्राचार इन दो प्रकारके चारित्रों में पहला सम्यक्त्वाचार नामका चारित्र होता है । अथवा 'ज्ञानयुक्त' यह क्रियाविशेषण है। इस पक्ष में गाथाके उत्तरार्ध का ऐसा अर्थ समझना चाहिये-जो ज्ञान-पूर्वक जिन-सम्यक्त्वका आचरण करता है वह पहला सम्यक्त्वचारित्र है ॥८॥
मावार्थ-जो सम्यक्त्व-चरण से शुद्ध हैं अर्थात् निर्दोष सम्यग्दर्शन के धारक हैं, संयमवरण से अतिशय प्रसिद्ध है अर्थात् अत्यन्त निर्दोष
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