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षट्प्राभृते
[२.८पवित्रपात्रजन-शरीरमलादिदर्शनेन शूकाया अकरणं उद्दायन-महाराजवत् । ( अमूढदिट्ठी य ) अमूढदृष्टिश्च जिनवचनेऽशिथिलत्वं रेवती महादेवीवत् । ( उव- . गृहण ) उपगृहनं जिनधर्मस्थ-बालाशक्तजनदोषझम्पनं जिनेन्द्रभक्त-श्रेष्ठिवत् । (ठिदिकरणं ) स्थितोकरणं सम्यक्त्वव्रतादेभ्रंश्यज्जनस्य तत्र स्थापनं पुष्पदन्तविप्रस्य वारिषेणवत् । ( वच्छल्ल ) वात्सल्यं धर्मस्थजनोपसर्गनिवारणं अकम्पनादेविष्णुकुमारमुनिवत् (पहावणा य ) प्रभावना च जिनधर्मोद्योतनं परधर्मप्रभावविध्वंसनं च वज्रकुमारविद्याधरमुनिवत् । ( ते अट्ठ ) ते सम्यक्त्वगुणा अष्टः भवन्ति ॥ ७॥
तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय। जं चरइ गाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ॥ ८॥
तं चैव गुणविशुद्धं जिनसम्यक्त्वं सुमोक्षस्थानाय ।
यच्चरति ज्ञानयुक्तं प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् ।। ८ ॥ . (तं चेव गुण विसुद्ध) तच्चैव सम्यक्त्वं मुणविशुद्ध निःशङ्कितादिभिरष्टगुणविशुद्ध निर्मलं । ( जिणसम्मत्तं) जिन सम्यक्त्वं जगत्पतिश्रीमद्भगवदर्हत्सपाँचवाँ गुण उपगूहन है । जिनेन्द्र भक्त सेठके समान जिनधर्म में स्थित बालक तथा वृद्ध आदि असमर्थ जनोंके दोष छिपाना उपग्रहन गुण कहलाता है । छठवां गुण स्थितोकरण है । जिस प्रकार पुष्पदन्त ब्राह्मण को वारिषेण ने दृढ़ किया था उसी प्रकार सम्यक्त्व और व्रत आदि से भ्रष्ट होते हुए मनुष्यको फिरसे उसीमें स्थिर कर देना स्थितिकरण गुण कहा है । सातवाँ गुण वात्सल्य है। जिस प्रकार अकम्पन आदि मुनियों का उपसर्ग विष्णुकुमार मुनि ने दूर किया था उसी प्रकार धर्मात्मा मनुष्य का उपसर्ग दूर करना वात्सल्य गुण कहलाता है । आठवाँ गुण प्रभावना है । वजकुमार नामक विद्याधर मुनिके समान जिनधर्मका उद्योत करना तथा अन्य धर्मके प्रभावका विध्वंस करना प्रभावना गुण कहलाता है । इस तरह निःशङ्कित आदि सम्यक्त्व के आठ गुण हैं ।। ७ ।। ___ गाथार्थ-निःशङ्कितादि गुणोंसे विशुद्ध वह सम्यक्त्व ही जिनसम्यक्त्व कहलाता है तथा जिन-सम्यक्त्व ही उत्तम मोक्ष रूप स्थान की प्राप्तिके लिये निमित्तभत है। ज्ञान सहित जिन-सम्यक्त्व का जो मुनि आचरण करते हैं वह पहला सम्यक्त्व-चरण नामका चारित्र है ॥ ८॥
विशेषार्थ-ऊपर के श्लोक में सम्यग्दर्शन के जिन निःशङ्कित आद आठ गुणों का वर्णन किया गया है उनसे सम्यग्दर्शन निर्मल होता है।
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