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२५६ षट्प्राभूते
[५.११भावनादूरीकृतश्च । ( तिरियगईए चिरं कालं ) तिर्यग्गती दीर्घ कालं असंख्यातवर्षपर्यन्तं वनस्पतिकायापेक्षयानन्तकालं चेत्यागमानुसारेण ज्ञातव्यम् ।
आगंतुक माणसियं सहजं सारीरियं च चत्तारि । दुक्खाइ मणुयजम्मे पत्तोसि अणंतयं कालं ॥११॥
आगन्तुकं मानसिकं सहजं शारीरिकं च चत्वारि।
दुःखानि मनुजजन्मनि प्राप्तोसि अनन्तकं कालम् ॥११॥ ( आगंतुक ) आगन्तुकं दुःखं विद्युत्पातादिकं । ( माणसियं ) मानसिकदुःख स्त्रीकटाक्षादिताडने सति तदप्राप्तौ भवति । तथा चोक्तं
संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेऽप्युद्वेगकारीण्यलं, दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् । तत्तावत्स्मरमि स्मरस्मित-सितापाङ्गरनङ्गायुध
र्वामानां हिमदग्धमुग्धतरुवद्यत्प्राप्तवान्निर्धनः ॥१॥ ( सहजं ) व्याधिवेदनोत्पन्नं दुःखं । ( सारीरियं ) छेदनभेदनादिकं दुःखं ।
भक्ति से भ्रष्ट होकर अर्थात् आत्मा की भावना से दूर रहकर तूने तिर्यञ्च गतिमें दीर्घ काल तक-असख्यात वर्षों तक अथवा वनस्पति-कायिक की अपेक्षा अनन्त कालतक दुःख प्राप्त किये हैं ।।१०॥
गाथार्थ-आगन्तुक, मानसिक, सहज और शारीरिक इस तरह चार प्रकारके दुःख तूने मनुष्य जन्म में अनन्त काल तक प्राप्त किये हैं ॥११॥
विशेषार्थ-बिजली-वज्र आदिके गिरने से जो दुख प्राप्त होता है से आगन्तुक दुःख कहते हैं । स्त्री के कटाक्ष आदिसे ताड़न होने तथा उसकी प्राप्ति न होनेपर जो दुःख होता है वह मानसिक दुःख है । जैसा कि कहा गया है
संसारे संसार में, नरकादि गतियोंके काल में स्मरण आते ही अत्यन्त उद्वेग करने वाले जो दुःख आपने सेवन किये हैं वे इसी तरह रहें उनका इस समय स्मरण नहीं है किन्तु निर्धन अवस्था में स्त्रियोंके कामसे खिले सफेद कटाक्ष रूपी कामके वाणों से तुषार से जलकर मूछित खड़े वृक्षकी भांति जो दुःख प्राप्त किया है उसका स्मरण तो है । ___ बीमारी की वेदनासे जो दुःख उत्पन्न होता है वह सहज दुःख है और छेदन भेदन आदिका दुःख शारीरिक दुःख है। यहाँ 'चकार' शब्द उक्त
१. शिता म०।
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