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षट्प्राभृते
[४. २४अत्यल्पायतिरक्षजा मतिरियं बोधोऽवधिः सावधिः, साश्चर्यः क्वचिदेव योगिनि स च स्वल्पो मनःपर्ययः। दुष्प्रापं पुनरद्य केवलमिदं ज्योतिः कथागोचरं, माहात्म्यं निखिलार्थगे तु सुलभे कि वर्णयामः 'श्रुते ॥१॥ णाणं-इति श्री बोधप्राभृते ज्ञानाधिकारः सप्तम समाप्तः । ७ ॥ अथेदानी गाथाद्वयेन देवस्वरूपं निरूपयन्ति श्रीकुन्दकुन्दाचार्या :सो देवो जो अत्थं धम्म कामं सुदेइ गाणं च । . . . सो देइ जस्स अत्थि दु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ॥२४॥ . स देवो योऽथं धर्म कामं सुददाति ज्ञानं च। .
स ददाति यस्य अस्ति तु अर्थः धर्मश्च प्रब्रज्या ॥ २४ ॥ (सो देवो जो अत्यं) स देवो योऽर्थ धनं निधि-रलादिक ददाति । (धम्म कामं सुदेइ गाणं च ) धर्म चारित्रलक्षणं दयालक्षणं वस्तु-स्वरूपमात्मोपलब्धिलक्षणमुत्तमक्षमादिदशभेदं सुददाति सुष्छु अतिशयेन ददाति । काम-अधंमण्डलिक मण्डलिक महामण्डलिक बलदेव वासुदेव चक्रवतीन्द्र-धरणेन्द्र भोगं तीर्थंकर
अत्यल्पा-इन्द्रियोंसे होने वाला यह मतिज्ञान अत्यन्त अल्प है, अवधिज्ञान अवधि-सीमा से सहित है, आश्चर्य से युक्त मनःपर्ययज्ञान किसी मुनिके होता है फिर भी अत्यन्त अल्प है और यह केवल ज्ञानरूप ज्योति इस समय अत्यन्त दुर्लभ होने से मात्र कथा का विषय है परन्तु श्रुतज्ञान समस्त पदार्थों को. विषय करता है तथा सुलभ भी है अतः उसके माहात्म्य का क्या वर्णन करें? अर्थात् उसका माहात्म्य वर्णनातीत है।
इस प्रकार बोध-प्राभृत में सातवाँ ज्ञानाधिकार समाप्त हुआ ॥ ७ ॥ ... गाथार्थ-देव वह है जो अर्थ, धर्म, काम और ज्ञानको अच्छी तरह
देता है। लोक में यह न्याय है कि जिसके पास जो वस्तु होती है वही उसे देता है। देवके पास अर्थ है, धर्म है ( चकार से ) काम है और प्रव्रज्या-दीक्षा अथवा ज्ञान है ॥२४॥ .
विशेषार्थ-अर्थ, निधि-रल आदि धनको कहते हैं। धर्मका लक्षण चारित्र, दया, वस्तु-स्वभाव, आत्मोपलब्धि, अथवा उत्तम क्षमा आदि दशभेद हैं । कामका अर्थ अर्धमण्डलिक, मण्डलिक-महामण्डलिक, बलभद्र,
१. श्रुतेः म०प०७०।
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