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बोधप्राभृतम्
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भोगं च यो ददाति स देवः । सुष्ठु ददाति ज्ञान च केवलं ज्योतिः ददाति । ( सो देइ जस्स अत्थिदु ) स ददाति यस्य पुरुषस्य यद्वस्तु वर्तते असत्कथं दातुं समर्थः । ( अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ) यस्यार्थो वर्तते सोऽर्थं ददाति यस्य धर्मो वर्तते स धर्मं ददाति यस्य प्रव्रज्या दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतुभूतां प्रव्रज्यां ददाति यस्य
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सर्व सुखं वर्तते स सर्व-सौख्यं ददाति । उक्तं च गुणभद्रेण गणिना"सर्व: प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात्सा सर्वकर्मक्षयात् सद्वृत्तास्स च तच्च - बोघनियतं सोऽप्यागमात्स श्रुतेः । सा चाप्तात् स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यत -
स्तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रिये ॥ १ ॥ धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता । देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणां ॥ २५ ॥ 'धर्मो दयाविशुद्धः प्रब्रज्या सर्वसङ्गपरित्यक्ता । देवो व्यपगत मोहः उदयक से भव्यजीवानाम् ||२५||
नारायण, चक्रवर्ती, इन्द्र, धरणेन्द्र और तीर्थंकर के भोग हैं और ज्ञानका अर्थ केवलज्ञान रूप ज्योति है । जो इन अर्थ धर्म आदि को देता है वह देव हैं । जिस पुरुष के पास जो वस्तु होती है उसे ही वह देता है । अविद्यमान वस्तु को देने के लिये कोई कैसे समर्थ हो सकता है। इस तरह यह सिद्ध हुआ कि जिसके पास अर्थ--धन है वह देता है जिसके पास धर्म है वह धर्म देता है, जिसके पास प्रव्रज्या दोक्षा है वह केवलज्ञान की प्राप्ति में कारणभूत प्रव्रज्या को देता है और जिसके पास सब सुख है वह सब सुख प्रदान करता है । जैसा कि गुणभद्राचार्य ने कहा है
सर्वः प्रप्सति - समस्त प्राणी शीघ्र ही समीचीन सुख प्राप्तिको इच्छा करते हैं, सुखकी प्राप्ति समस्त कर्मों के क्षय से होती है समस्त कर्मों का क्षय सदवृत्त - सम्यक् चारित्रसे होता है, सद्वृत्त सम्यक्चारित्र ज्ञानके अधीन है, ज्ञान आगम से होता है, आगम श्रुतिसे होता है, श्रुति आप्त होत है, आप्त समस्त दोषों से रहित होता है और दोष रागादि हैं अतः सत्पुरुष लक्ष्मी के लिये युक्तिपूर्वक विचार कर सर्व सुखदायी उस आप्तकी उपा सना करें।
गाथार्थ - दया से विशुद्ध धर्म, सर्वपरिग्रह से रहित प्रब्रज्या
१. आत्मानुशासने ।
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