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________________ षट्प्राभूते च्छिणायस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो । सो होदि हु सुचरितो जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥ ८३ ॥ निश्चयनयस्येवं आत्माऽऽत्मनि आत्मने सुरतः । सभवति हि सुचरित्र : योगी स लभते निर्वाणम् ||८३|| ( णिच्छयणयस्स ) एवं निश्चयनस्यैवमभिप्रायः । ( एवं ) कथमिति चेत् ? ( अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो ) आत्मा कर्ता, आत्मन्यधिकरणभूते . आत्मने आत्मार्थमिति संप्रदाने तादयंचतुर्थी, सुष्ठु अतिशयेनालौकिकप्रकारेण रतः तन्मयीभूत एकलोलीभावं गतः । ( सो होदि ह सुचरितो ) स आत्मा भवति कथंभूत भवति सुचरित्रः निश्चयचारित्रः । ( जोई सो लहइ णिव्वाणं ) योगी ध्यानवान् पुमान् लभते प्राप्नोति, किं तत् ? निर्वाणं परमसुखं मोक्षमिति, अथवा योगीशो योगिनां ध्यानिनामीशः स्वामी निर्वाणं लभते इति सम्बन्धः । ६५८ पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाण दंसणसमग्गो । जो शायदि सो जोई पावहरो भवदि णिद्वंदो ॥ ८४ ॥ पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः । यो ध्यायति स योगी पापहरो भवति निर्द्वन्द्वः ॥ ८४ ॥ [ ६.८३-८४ गाथार्थ - निश्चय का ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा आत्मा के लिये आत्मा में तन्मयीभाव को प्राप्त है वही सचारित्र - उत्तम चारित्र है । इस चारित्र को धारण करने वाला योगी निर्वाण को प्राप्त होता है ॥ ८३ ॥ विशेषार्थ - निश्चयनयके अनुसार सम्यक् चारित्रका स्वरूप निरूपण करते हुए कहा है कि जो आत्मा आत्मा के लिये आत्मा में सुख है अर्थात् अलौकिक प्रकार से तन्मयी भावको प्राप्त है वह आत्मा सुचारित्रनिश्चयचारित्र | निश्चयनय गुणगुणी के भेदको भी स्वीकृत नहीं करता इसलिये यहाँ आत्मा और चारित्र में गुणी तथा गुण का भेद न कर आत्मा के लिये ही सुचारित्र कह दिया है । जिस योगी को ऐसा सुचारित्र प्राप्त हो गया है वह नियम से निर्वाण को प्राप्त करता है अथवा 'जोई सो' की संस्कृत छाया 'योगीश: ' है इस पक्ष में निश्चयचारित्र का धारक योगीश निर्वाण को प्राप्त अर्थ होता है कि वह होता है ॥ ८३ ॥ गाथार्थ - पुरुषाकार अर्थात् मनुष्य शरीर में स्थित जो आत्मा, योगी बनकर उत्कृष्ट ज्ञान और दर्शन से पूर्ण होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है, वह पापों को हरने वाला तथा निर्द्वन्द्व होता है ॥८४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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