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________________ -६.८२] मोक्षप्राभृतम् ६५७ शास्त्रसमुद्रपारगाणां सम्यग्दर्शनशानचारित्रपवित्रगात्राणां स्त्रीविवर्जितानां विवाहादिपापारम्भविवर्जितानां क्षत्रद्विजवैश्यअश्ववृषभगजवर्करादिजीवानाममारकाणां मधुलिप्त वनिताभगानास्वादकालं सौत्रामणिमद्यानामपायकानां गोवघं कृत्वा संवत्सरे मातृभगिन्यादिभोगालम्पटानां भव्यजीवसंबोधने मातृपितृवृद्धितोपदेशकानां पापघटाग्राहकाणां, कृष्यादिसावद्यकर्मरहितानां प्रासुकपरगृहयोग्यभोजनभोजकानां अवर्णलोपकानामतुच्छिष्टभुक्तिग्रहणमार्गाणां इत्यादिगुणगणगरिष्ठानां जगदिष्टानां गुरूणां ये भक्ताः पाचपंकजमधुलिहः देवगुरूणां भक्ता इत्युच्यन्ते (णिब्वेयपरंपरा विचितंता ) निर्वेदः संसारशरीरभोगविरागता तस्य परंपरा नानाविधोपदेशस्तां विशेषेण चिन्तयन्तः पर्यालोचयन्तः नरकादिगतिगर्तपातिपातकभयभीतमूर्तयः । (माणरया सुचरित्ता) घ्याने धर्म्यशुक्लध्यानद्वये रतास्तत्पराः, सुचारित्राः शोभनाचाराः । (ते गहिया मोक्समग्गम्मि) ते भव्यवरपुण्डरीका गृहीता अङ्गीकृता मोक्षमार्ग इति । . इन्हें आदि लेकर अनन्त गुणोंसे अतिशय श्रेष्ठ अर्हन्त देवका और निर्ग्रन्थ आचार्यों में श्रेष्ठ, शास्त्र समुद्र के पारगामी, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे पवित्र शरीर, स्त्री से रहित, विवाह आदि पापके आरंभों से रहित क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्य, घोड़ा, बैल, हाथी तथा बकरा आदि जीवों को नहीं मारने वाले, मधुसे लिप्त स्त्री के भगका स्वाद नहीं लेनेवाले, सौत्रामणि नामक यज्ञ में मदिरा को नहीं पीने वाले, गोवध करके संवत्सर नामक यज्ञ में माता बहिन आदि के भोग में अलम्पट, भव्यजीवों के संबोधन करने में माता पिता के समान हितका उपदेश देनेवाले, पाप समूह को ग्रहण नहीं करने वाले, खेती आदि पाप कार्यों से रहित. दूसरों के घरमें योग्य प्रासुक आहार का भोजन करने वाले, ब्राह्मणादि ..वर्णोंका लोप नहीं करने वाले, जंठे भोजन को ग्रहण करने के मार्ग से रहित, इत्यादि गुणोंके समूह से श्रेष्ठ तथा जगत् के लिये इष्ट गुरुओं के भक्त हैं:-उनके चरण कमलों में भ्रमर बनकर रहते हैं जो संसार शरीर और भोगों से विरागता रूप निर्वेद की परम्परा का विशेष रूप से विचार करते हैं, जो नरकादि गति रूप गर्त में गिराने वाले पापों से भयभीत रहते हैं, धय॑ध्यान और शुक्लध्यान में तत्पर रहते है तथा सुचारित्र हैं अर्थात् निर्दोष आचार का पालन करते हैं वे श्रेष्ठ भव्य जीव मोक्षमार्ग में बङ्गीकृत हैं अर्थात् मोक्षमार्ग में विचरण करने बा२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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