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________________ ३४२ षनामृते गृहीतमल्लपरिच्छदाः कर्णानन्दकारिवारिगल ध्वनिभिरेकत्रीभूत्वा [य] चरणोत्क्षेपविनिक्षेपाः प्रोन्नतभुजद्वयोत्कटाः पर्यावतितप्रेक्षणीयभू भंगभयानकशब्दानिवर्तनशतावर्तनसंभ्रमणवलानपत्वनसमवस्थानरश्च स्फुटः करणः रंगसमीपमलंकृत्य नयनमनोहरास्तस्थिवांसः । कंसममाश्च प्रोवृत्ताश्चाणूरप्रमुखा विक्रमैकरसा रंगाम्यणं समाक्रम्य स्थितवन्तः विष्णुश्च रंगस्य मध्ये समुदात्तमनाः प्रसरो वीर उरुमल्लाग्रणीः प्रतिमल्लयुद्धविजयं प्रागेव प्राप्त इव दीप्ततेजा 'देवोऽवतीर्णोऽधुना मल्लत्वं प्राप्तो भास्वानिव अहं जेष्यामीति प्रवृद्धपराक्रमकरसः स्वयं संभावयन् निविपरिगृहीतपरिधानः प्रबद्धकोशः स्वभावेन मसृणाङ्गो विकूर्चश्चित्तवृत्तिवित्तोऽप्रतिमल्ल गोपमल्ल निरन्तराभ्यस्तनियुद्धत्वाद-विकल जिससे भयभीत होकर हाथी दूर भाग गया। यह देख कृष्ण बहुत संतुष्ट होते हुए बोले कि इस निमित्त से कुटुम्ब को प्रकट करने वाली हमारी जीत होगी । इस प्रकार गोपों को उत्साहित कर कृष्ण ने कंस को सभा में प्रवेश किया। राजा वसुदेव भी कंस का अभिप्राय जानकर अपनी सेना को तैयार किये हुए एक ओर बैठे थे। बलभद्र भी कृष्ण के साथ रङ्गभूमि ( अखाड़े ) में प्रविष्ट हुए की तरह भुजदण्ड के आस्फालन का शब्द कर सब ओर घूमने लगे और धोरे से 'आज तुम्हारा कंस को मारनेका समय है' यह कह कर बाहर निकल गये। उस समय कंस की आज्ञा से कृष्णके आज्ञाकारी गोपकुमार रङ्गभूमिके समीप ही बैठे थे । वे गोपकुमार गर्व से भरे थे, भुजाओंका आस्फालन कर मल्ल का वेष धारण किये थे। कानोंको आनन्द देने वाली बाजों की चञ्चल ध्वनि से एकत्रित होकर पैरोंको ऊपर उठाते और नीचे पटकते थे, ऊपर उठी हुई दोनों भुजाओंसे भयंकर दिखाई देते थे, क्रमसे नचाई गई देखने योग्य भोहों के भङ्ग से भयानक हो रहे थे तथा शब्दोंके अनिवर्तन, शतावर्तन, संभ्रमण, बलान, प्लवन समवस्थान तथा अन्य-अन्य प्रकारके आसनोंसे रङ्गभूमि के समीपवर्ती प्रदेश को अलंकृत कर रहे थे एवं नेत्र और मनको हरने वाले थे। पूरे ऊँचे तथा पराक्रम से परिपूर्ण चाणूर आदि कंस के मल्ल भी रङ्गभूमिके निकट अधिकार कर जमे हुए थे। १. देवोद्रवतीर्ण म०। २. सुष्ठ अयः स्वयः तम् । ३. प्रबरकोशः म० प्रवृद्धकोशःक० । ४. म प्रती गोपमल्लः नास्ति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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