________________
-७. ७-८] लिंगप्राभृतम्
पावोपहदिभावो सेवदि य अबंभु लिंगिरवेण।। सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकांतारे ॥७॥
पापोहतभावः सेवते च अब्रह्म लिगिरूपेण ।
स पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे ॥ ७ ॥ दंसणणाणचरित्ते उवहाणे जइ ण लिंगरूवेण । अट झायदि झाणं . अणंतसंसारिओ होदी ॥४॥ दर्शनज्ञानचारित्राणि उपधानानि यदि न लिंगरूपेण । आतं ध्यायति ध्यानं अनन्तसंसारी को भवति ॥ ८॥
धिक गर्व से युक्त होता हुआ कलह करता है, वादविवाद करता है, अथवा जुआ खेलता है वह चूँकि मुनि लिङ्ग से ऐसे कुकृत्य करता है अतः पापी है और नरक जाता है।
भावार्थ-जो ऊंचा पद धारण कर कुकृत्य करता है वह पापी नियम से नरकगामी होता है ॥६॥ .. पापोपहद-पापसे जिसका यथार्थ भाव नष्ट होगया है ऐसा जो पुरुष मुनिलिङ्ग धारण कर भी अब्रह्म का सेवन करता है वह पापसे मोहित बुद्धि होता हुआ संसार रूपी अटवी में भ्रमण करता रहता है।
भावार्थ-मनि लिङ्ग धारण कर जिसने पहले अब्रह्म सेवन का परित्याग किया पीछे पापोदय से परिणामों को मलिन कर जो अब्रह्म का सेवन करता है वह दुर्बुद्धि दीर्घ काल तक संसार रूपी वन में घूमता रहता
है॥७॥ . सणणाण-जो मुनि लिङ्ग धारण कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और
सम्यक्चारित्र को उपधान अर्थात् आश्रय नहीं बनाता है तथा आर्तध्यान करता है वह संसारी होता है।
भावार्थ-मुनिवेषका प्रयोजन तो रत्नत्रय की आराधना है पर जो मुनिवेष रख कर रत्नत्रय को ध्यानका आलम्बन नहीं बनाता उलटा . - आत्तध्यान करता है वह अनन्त संसारी होता है अर्थात् जिसके संसार - का अन्त नहीं ऐसा अभव्य कहलाता है ॥८॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org