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षट्प्राभूते
[ ७.४-६
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णच्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूवेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ४ ॥ नृत्यति गायति तावत् वाद्य ? वादयति लिंगरूपेण । स पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न स श्रमणाः ।। सम्मूहदि रक्खेदि य अट्टं शाएदि बहुपयत्तेण । सा पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ५ ॥ समूहयति रक्षति च तं ध्यायति बहुप्रयत्नेन । स पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥ ५ ॥ कलहं वादं जूवा णिच्च वहुमाणगव्विओ लिंगी । वच्चदि रयं पाओ 'करमाणो लिगिरूवेण ॥ ६ ॥ कलहं वाद द्यूतं नित्यं वहुमानगवितो लिंगी । व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरूपेण || ६ ||
भावार्थ - जो नग्न मुद्राको धारण कर पीछे पापसे मोहित बुद्धि होता हुआ वेषधारियों के यथार्थं भावका उपहास करता है अर्थात् भावलिङ्ग की ओर लक्ष्य नहीं देता मात्र पापसे प्रेरित होकर विपरीत आचरण करता है वह अन्य जो यथार्थं वेषधारी हैं उनके भी वेषको नष्ट करता है। उनके वेषके प्रति लोगों में अनादरका भाव उत्पन्न कराता है ||३||
णच्चदि - जो मुनि लिङ्गसे नाचता है, गाता है अथवा बाजा बजाता है वह पापसे मोहित बुद्धि पशु है, मुनि नहीं है।
भावार्थ - जो मुनि होकर भी नृत्य करता है, गाता है और बाजा ता है वह पापी पशु है, मुनि नहीं है ॥४॥
सम्महदि - जो बहुत प्रकार के प्रयत्नों से परिग्रह को इकट्ठा करता है, उसकी रक्षा करता है तथा आर्तध्यान करता है वह पापसे मोहित बुद्धि पशु है, मुनि नहीं है।
भावार्थ - मुनि होकर भी जो नाना प्रकार के प्रयत्नों से परिग्रह को इकट्ठा करता है, उसकी रक्षा करता है तथा उसके निमित्त आर्तध्यान करता है उसकी बुद्धि पापसे मोहित है उसे पशु समझना चाहिये वह मुनि नहीं कहलाता है ||५||
कलहं - जो पुरुष मुनि लिङ्ग का धारक होकर भी निरन्तर अत्य१. करणमर्णा लाउराण य इतिपाठ पं० जयचन्द्रेण स्वीकृतः तेनैव राउलाणं इत्यपि पाठान्तर सूचितं समाएण म० ।
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