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________________ लिङ्ग प्राभृतम् काऊण णमोकारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं । समासेण ॥ १ ॥ सिद्धानां । वोच्छामि समर्णालगं पाहुडसत्थं कृत्वा नमस्कारं अर्हतां तथैव वक्ष्यामि श्रमणलिंगं प्राभृतशास्त्र ं समासेन ॥ १ ॥ धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती । जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो ॥ २ ॥ धर्मेण भवति लिंग न लिंगमात्रेण धर्मसंप्राप्तिः । जानीहि भावधर्मं कि ते लिंगेन कर्तव्यं ॥ २॥ जो पावमोहिदमदी लिंगं घेत्तूण जिणवरिदाणं । उवहसइ लिंगि भावं 'लिंगं णासेदि लिंगीणं ॥ ३॥ यः पापमोहितमतिः लिगं गृहोत्वा जिनवरेन्द्राणां । उपहसति लिंगिभावं लिंगं नाश्यति लिंगीनां ॥ ३ ॥ काऊ - में अरहन्तों तथा सिद्धों को नमस्कार कर संक्षेप से मुनिलिङ्ग का वर्णन करने वाले प्राभृत शास्त्र को कहूँगा ॥ १ ॥ धम्मेण - धर्म से ही लिङ्ग होता है, लिङ्गमात्र धारण करने से धर्म की प्राप्ति नहीं होती इसलिये भावको धर्म जानो, भाव-रहित लिङ्ग से तुझे क्या कार्य है ? वेष भावार्थ - लिङ्ग अर्थात् शरीर का भावंके बिना मात्र शरीरका वेष धारण नहीं होती इसलिये भाव ही धर्मं है भावके नहीं है ।। २ ।। जो पाप - जिसकी बुद्धि पापसे मोहित हो रही है ऐसा जो पुरुष जिनेन्द्र देवके लिङ्गको नग्न दिगम्बर वेषको ग्रहण कर लिङ्गी के यथार्थ भावकी हंसी करता है वह सच्चे वेषधारियों के वेषको नष्ट करता है अर्थात् लजाता है । धर्म से होता है जिसने किया है उसके धर्मकी प्राप्ति बिना मात्र वेष कार्यकारी १. उवहमह इति पाठ: अ: पं० जयचन्द्रिण स्वीकृतः । लिगिम्मी य णारदो लिगी ।. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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