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भावप्राभृतस्
२५१
रात्मनो जीवस्य किं करोति, न किमपि कर्मसंवरनिर्जरालक्षणं कार्य करोतीति
भावार्थः ।
जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण । पंथिय सिवउरिपंथं जिणउवइट्टु पयत्तेण ॥६॥ जानीहि भावं प्रथमं कि ते लिंगेन भावरहितेन । पथिक ! शिवपुरीपथः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन ||६||
( जाणहि भावं पढमं ) जानीहि भावमात्मस्वरूपभावानां प्रथमं मुख्यं । (fi ते लिंगेण भावरहिण ) किं तव लिंगेन भावरहितेन किं न किमपि संवरनिर्जरादिलक्षणं कार्यं, अपि तु न किमपि कार्यं भवति लिगेन वस्त्रादित्यजनलक्षणेनात्मस्वरूपभावनारहितेन । ( पंथिय ) हे पथिक ! मोक्षमार्गमार्गक ! (सिवरिपंथ ) मोक्षनगरीमार्गः । ( जिणउवइट्ठ ) जिनोपदिष्ट: । ( पयत्तेण ) प्रयत्नेन यतः कारणादिति शेषः ।
भावरहिएण सउरिस अणाइकालं अनंत संसारे । गहिउज्झियाइं बहुसो बाहिरनिग्गंथरूवाई ||७|| भावरहितेन सत्पुरुष ! अनादिकालं अनन्तसंसारे । गृहोतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिग्रन्थरूपाणि ||७||
कर सकता है ? अर्थात् कर्मोंके संवर और निर्जरा रूप कुछ भी कार्य नहीं कर सकता है ॥५॥
गाथार्थ - भावको प्रमुख जान, भाव-रहित लिङ्ग से तुझे क्या प्रयोजन है-उससे तेरा कौनसा कार्य सिद्ध होनेवाला है ? हे पथिक ! मोक्ष नगरका मार्ग जिनेन्द्र भगवान्ने बड़े प्रयत्न से बताया है ||६||
विशेषार्थ - भाव - आत्मस्वरूप की भावना को प्रमुख जानो अथवा सबसे पहले भावको पहिचानो, भाव-रहित लिङ्ग से - मात्र द्रव्य-लिङ्गसे तुझे क्या प्रयोजन है ? उससे संवर निर्जरा आदि रूप कुछ भी कार्य नहीं • होता है । है पथिक ! तू मोक्षमार्ग की खोज कर रहा है । सो मोक्षपुरी का मार्ग जिनेन्द्र भगवान् ने बड़े प्रयत्न से - बतलाया है । तू उसी मागं
पर चल ||६||
गाथार्थ - हे सत्पुरुष ! तू ने भाव-रहित होकर अनादि काल से इस अनन्त संसार में बहुत बार बाह्य निर्ग्रन्थ मुद्रा को ग्रहण किया तथा छोड़ा है ||७||
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