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३२८ षट्प्राभृते
[५. ४६मुत्थितं दृष्ट्वा व्याघुटय वनमाजगाम । पुनर्मासोपवास जग्राह । पुनः पारणार्थ मासोपवासावसाने पुरं गतः। तत्र यागहस्तिनः क्षोभं दृष्ट्वा वनमागतः । पुनर्मासोपवासपारणायां नगरं गतः । तदा जरासन्धपत्रकं दृष्ट्वा राजनि व्यग्रचित्ते सति पुनर्वलितः । तदा क्षीणशरीरं वशिष्ठमुनि दृष्ट्वा लोको जगाद-अनेन राज्ञा मुनिर्मारितः, स्वयं भिक्षां न ददाति परान् वारयतीति न ज्ञायते कोभिप्रायो नृपस्येति । तत्श्रु त्वा वशिष्ठो मुनिः पापोदयान्निदानं चकार । मम दुष्करतपःफलादस्य राज्ञः पुत्रो भूत्वा अमुनिगृह्य अस्य राज्यं गृह्यासमहमित्यनेन दुष्परिणामेन मृत्वा पद्मावतीगर्भे पुत्रतया स्थितः। सा गर्भिकक्रौर्येण दोहदं चकारराज्ञो हृदयमांसमग्रीमोति । तदप्राप्नुवन्ती दुर्बला बभूव । तज्ज्ञात्वा मंत्रिणः
रानीने पापी पत्रको उत्पन्न किया। जब वह उत्पन्न हआ तब अपना ओठ डस रहा था, भौंहकी भङ्गसे सहित था और मद्रो बांधे था। उसे देख माता-पिता ने विचार किया कि यह पालन-पोषण करने योग्य नहीं है, अतः उसे छोड़ने का उपाय किया। एक कांसे की पेटी लाकर उसमें सब समाचार के साथ कंसको ( उस बालकको ) रख दिया तथा यमुना के प्रवाह में छोड़ दिया।
कौशाम्बी नगरी में मन्दोदरी नामको एक कल्पपाली ( कलारन ) रहती थी उसने प्रवाह के बीच काँसेकी पेटी में रखे हुए उस बालक को देखा और पुत्र रूपसे उसका पालन किया । आचार्य कहते हैं कि तपस्वियों के हीन कोटिके पुण्य भो क्या नहीं करते हैं ? अर्थात् उनसे भी विशिष्ट लाभकी प्राप्ति होती है । कितने ही दिनों में वह बालक उलाहना आदिको सहन करने वाली अवस्थाको प्राप्त होगया। खेलता हुआ वह विना कारण ही समस्त बालकों को चाँटा, घुसा तथा दण्ड आदिसे मार देता था तथा हिंसाका पाप बाँधता था। उसके दुराचार के उलाहनों को जब मन्दोदरी नहीं सह सकी तब उसने उस पूत्र को छोड़ दिया। अब वह कंस शौर्यपुर जाकर वसुदेवका सेवक बन करके उनकी सेवा करने लगा। __ इसी बीच में तीन खण्ड पृथिवी के अधिपति राजा जरासन्धका एक कार्य वाकी रह गया था उसकी पूर्ति के लिये उसने समस्त राजाओं के समूह के पास इस आशयके पत्र भिजवाये कि सुरम्यदेश में पोदनपुरके स्वामी सिंहरथको युद्ध में बांधकर जो लावेगा उसके लिये मैं आधा देश तथा कालिन्द सेना से उत्पन्न अपनी जीवद्यशा नामकी पुत्री दूंगा उस पत्र को लेकर वसुदेव ने बचवाया और अपने घोड़ोंको सिंहके मूत्रसे संस्कारित
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